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कसने कहा मन लचचं है।
परिवार एक सच्चाई है, किन्तु आदमी अपने आपको उससे अभिन्न मान लेता है। 'मैं और मेरा परिवार एक है'- यह मान्यता बन जाती है। जब तक व्यक्ति परिवार के स्वार्थों का पोषण करता है तब तक परिवार वाले उसको अलग नहीं मानते और वह भी परिवार से अपने को अलग नहीं मानता । किन्तु यह सचाई तब खडित हो जाती है जब व्यक्ति के द्वारा होने वाला स्वार्थ का पोषण टूट जाता है। उस दिन पता चलता है कि परिवार व्यक्ति के प्रति क्या है और व्यक्ति परिवार के प्रति क्या है ? फिर एक साथ इतना अनुताप उभरता है, इतना दुःख होता है कि व्यक्ति का मन टुकड़ाटुकड़ा हो जाता है । वह सोचता है-जिस परिवार के लिए मैंने इतना काम किया, इतने कष्ट सहे, यह किया, वह किया और वही परिवार आज मेरे से आंख तक नहीं मिलाता । उसे अत्यन्त दुःखद अनुभूति होती है । मन मैला हो जाता है। उस पर मैल की परतें जमती जाती है। उसके लिए दुःख के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। हम इस सचाई को मानकर चलें कि पारिवारिक सम्बन्ध, मित्रों और साथियों के सम्बन्ध वास्तविक नहीं है। अन्तिम सचाई यह है कि व्यक्ति अकेला है, बिल्कुल अकेला । यह है एकत्व अनुप्रेक्षा। इस सचाई को समझकर ही हम पारिवारिक सम्बन्धों को निभा सकते हैं। जो इस सचाई को भुलाकर सम्बन्धों को अन्तिम सचाई मानकर चलते हैं, उनके मन पर मैल इतना गाढ़ा जम जाता है कि उसको धोने के लिए बहुत अधिक प्रयत्न करना पड़ना है।
मन पर जमने वाले मलों को दूर करने के लिए हमें अनुप्रेक्षा का अभ्यास करना चाहिए। अनुप्रेक्षाएं तीन हैं-अन्यत्व अनुप्रेक्षा, एकत्व अनुप्रेक्षा और अनित्य अनुप्रेक्षा । अन्यत्व अनुप्रेक्षा अर्थात् शरीर और आत्मा का भेदज्ञान । शरीर को अलग मानना, आत्मा को अलग मानना । दोष का मूल कारण है-शरीर के प्रति मूर्छा। यही मूर्छा दूसरी सारी मूर्छाओं को जन्म देती है। जब अन्यत्व अनुप्रेक्षा का अभ्यास होता है तब शरीर के प्रति होने वाली मूर्छा नहीं पनपती, मैल नहीं जमता, तब फिर पदार्थ के द्वारा होने वाला यह घर्षण, यह मूर्छा और उससे जमने वाला यह मैल भी कम होने लगता है । एकत्व अनुप्रेक्षा के अभ्यास से सामाजिक सम्बन्धों से आने वाली मूर्छा कम होने लगती है। अनित्य अनुप्रेक्षा के अभ्यास से पदार्थों के प्रति होने वाली मूर्छा नष्ट हो जाती है।
इस प्रकार इन तीन प्रकार की अनुप्रेक्षाओं से मन के मैल को धोया
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