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________________ "२७० किसने कहा मन चंचल है है, तृष्णा बढ़ रही है--ये बातें मन में जागती हैं तब साधक कायोत्सर्ग करे। जो भी विचार आए, उसे देखता रहे । विचारों को रोके नहीं। उन्हें आने का मुक्त अवकाश दे। द्रष्टाभाव से देखता जाए। जो आता है वह अपने-आप चला जाएगा । जब साधक द्रष्टाभाव में रहता है तब अतीत कुछ बिगाड़ नहीं सकता। कर्मों का, संस्कारों का उभार होता है, उनका उदय होता है, साधक द्रष्टाभाव से सब कुछ देखता जाता है। वे विपाक होते हैं और मिट जाते हैं । उनका आना-जाना चालू रहता है और साधक का देखना चालू रहता है। यही प्रेक्षाध्यान की पद्धति है। आचार्य हेमचंद ने योगशास्त्र लिखा । उसमें बारह प्रकरण हैं। प्रथम ग्यारह प्रकरणों में उन्होंने परम्परागत ध्यान की पद्धति का प्रतिपादन किया और बारहवें प्रकरण में अपने अनुभूत तथ्यों का उल्लेख किया। उन्होंने लिखा --"मैं जो कुछ इस प्रकरण में लिख रहा हूं वह किसी शास्त्र के आधार पर नहीं लिख रहा हूं, किसी परंपरा के आधार पर नहीं लिख रहा हूं, किन्तु मेरा अपना जो अनुभव है वह मैं यहां प्रकट कर रहा हूं।" अपने अनुभवों के प्रकटीकरण में उन्होंने बताया कि जो विचार आते हैं उन्हें रोको मत । विचारों को रोकने से वे भीतर दब जाते हैं। ऐसा लगता है कि उनके ये विचार आज की मनोविज्ञान की भाषा में इस प्रकार कहे जाते हैं'इच्छाओं का दमन मत करो। इच्छाओं का दमन करोगे तो वे और गहरे में चली जाएंगी और फिर भयंकर रूप धारण कर सताएंगी। __ आचार्य कहते हैं-"विचारों को रोको मत, दबाओ मत।" तो क्या बूरे विचारों को भी आने दें? धार्मिक लोग भला बुरे विचारों को कैसे आने देंगे । वे कहेंगे-'बुरे विचारों पर नियंत्रण लगाना चाहिए। उन्हें रोकना चाहिए।" आज के धार्मिक स्वयं के बुरे विचारों के प्रति इतने जागरूक नहीं होते, जितने जागरूक वे दूसरों के बुरे कर्मों के प्रति रहते हैं । वे दूसरों को बुरे कर्मों से बचाने के लिए अनेक प्रकार का नियंत्रण रखते हैं, अनेक नियमउपनियम बनाते हैं । ऐसा लगता है कि मानो धर्म नियंत्रण के आधार पर चल रहा है । नियंत्रण से परिष्कार नहीं आता। यह परिष्कार या निर्जरा की पद्धति नहीं है । यह तो एक ऐसी पद्धति है कि जिससे रोग दब जाता है, मिटता नहीं। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति दोषों को बाहर निकालकर स्वास्थ्य प्रदान करती है । दोषों को दबाती नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003132
Book TitleKisne Kaha Man Chanchal Hain
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1985
Total Pages342
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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