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किसने कहा मन चंचल है
कर सकोगे ? तुम कहां भटक गए ? यह सामायिक का रास्ता गलत है।" यह व्यक्ति ऐसा भटकता है, मार्ग-च्युत होता है कि सामायिक कहीं रह जाती है, पोछे छूट जाती है और वह पुनः विषय मार्ग पर अग्रसर हो जाता है।" इसलिए सान्निध्य ऐसा मिले जो समता की ओर बढ़ा सके, आगे ले जा सके, जिससे यह सतत प्रेरणा और स्फुरण मिलती रहे कि जीवन में यदि सामायिक उपलब्ध नहीं हुआ तो कुछ भी उपलब्ध नहीं हुआ। सब-कुछ पाकर भी व्यक्ति दरिद्र है यदि उसे सामायिक प्राप्त नहीं है। वह बेचारा गरीब ही बना रहा जिसने सामायिक को उपलब्ध नहीं किया और जिसने समता का आस्वादन नहीं किया ।
जब हमारे सामने एक परम पवित्र आत्मा विराजमान रहती है, हमारा इष्ट होता है, उस परम आत्मा का सान्निध्य हमारे अन्तःकरण में, हमारी चेतना के कण-कण में विद्यमान होता है, उस समय कोई भी शक्ति हमें समता से विचलित नहीं कर सकती। इसलिए श्रेयस् की यात्रा में सान्निध्य बहुत अपेक्षित होता है।
सन्निधि का अर्थ है-निकटता । जब सामायिक के चरम शिखर को उपलब्ध आत्मा के साथ हमारी एकात्मकता होती है, तब सहज ही हमारे जीवन में सामायिक का अवतरण हो जाता है । उसी क्षण में यह अनुभूति जागती है-'करेमि भंते ! सामाइयं-भगवन् ! मैं सामायिक करता हूं।' सामायिक जीवन की एक बहुत बड़ी घटना है। यह घटना घटित होती है उस यात्रा में गति होने पर । जब व्यक्ति सभी पापमय प्रवृत्तियों से अपने अस्तित्व को पृथक् अनुभव करता है तब सामायिक घटित होती है। जब सावध कर्मों के साथ, क्लेश में डालने वाले कर्मों के साथ अपने अस्तित्व को जोड़ता चलता है तब तक सामायिक घटित नहीं होती। सामायिक घटित होती है उस संकलन के द्वारा कि जो कुछ मेरे सामने है वह सारा का सारा भिन्न है । मेरा अस्तित्व इन सबसे भिन्न है । मेरे अस्तित्व के साथ इनका जुड़ना ही दुःख है । जब व्यक्ति अपने अस्तित्व को पृथक् देखना शुरू करता है और अपने अस्तित्व से परे की सारी वस्तुओं को भिन्न देखता है, उस क्षण में जीवन में सामायिक घटित होती है। जितनी भी सावध प्रवृतियां हैं, जितनी भी क्रोध की, मान की, माया की, राग-द्वेष का प्रवृतियां हैं, जिनको हमने अपने अस्तित्व से जोड़ रखा है, जिनकों हमने अपने अस्तित्व का अंग बना रखा है, जब तक उनके साथ अभिन्नता की दृष्टि बनी रहेगी तब तक
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