________________
२३०
किसने कहा मन चंचल है स्वरशास्त्री स्वरों के आधार पर इनका निर्णय करता है । मनुष्य के भाग्य का निपटारा इन द्वन्द्वों के आधार पर होता है। जब इन द्वन्द्वों के विषय की जिज्ञासा समाप्त हो जाती है तब द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं। अध्यात्मशास्त्र इनसे प्रारंभ होता है किन्तु द्वन्द्वातीत चेतना के आधार पर चलता है। सामान्य जीवन में हम द्वन्द्वों से ही परिचित होते हैं । प्रतिकूल स्थिति में मन में शोक
और अनुकूल स्थिति में मन में हर्ष आना स्वाभाविक है। हमने स्वाभाविक मान लिया। शोक को भी स्वाभाविक मान लिया और हर्ष को भी स्वाभाविक मान लिया। हमारे लिए कष्ट स्वाभाविक संवेदना स्वाभाविक और भी सारे सुख-दुःख स्वाभाविक । हमने इन सबको स्वाभाविक मान लिया, अर्थात् चेतना के परे भी कोई संसार है, चेतना के आयामों के परे भी कोई मन की स्थिति है-यह हमें ज्ञात ही नहीं है। हमारे जीवन का पूरा क्रम इन दो आयामों-इन्द्रिय चेतना और मनःचेतना में चलता है, उनकी परिधि में चलता है। अध्यात्म का विकास वहां से शुरू होता है जहां ये आयाम टूट जाते हैं । वहां तीसरा नया आयाम खुलता है । वह समभाव का आयाम है । वहां सारे द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं । न शोक, न हर्ष । न सुख, न दुःख । न जीने का हर्ष और न मरने का शोक । न मान के प्रति आकर्षण और न निन्दा के प्रति प्रकंपन-इस दोनों से हटकर एक ऐसी स्थिति बन जाती है जो संतुलित होती है । यह है चेतना का तीसरा आयाम । इस नए आयाम पर हमें बहुत विचार करना है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org