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किसने कहा मन चंचल है
कल्याण । केवल कल्याण ।
सत्य की खोज न करने का परिणाम है-शत्रुता के भाव का विस्तार । जब तक हम सत्य की खोज नहीं करते तब तक शत्रुता की भावना बढ़ती है। जब हम अध्यात्म की भूमिका पर उतरकर सत्य की खोज प्रारंभ करते हैं तब यह सचाई अनुभव में आने लगती है कि दुनिया में कोई शत्रु नहीं है। हम उसको शत्रु मानते हैं जिसके विचार हमारे विचारों से नहीं मिलते । हम उसको शत्रु मानते हैं जो हमारे से भिन्न विचारधारा का साथी है । हम उसको शत्रु मानते हैं जिसका कार्य-कलाप हमारे कार्य कलाप से भिन्न है। हम उसको शत्रु मानते हैं जो हमारी सभ्यता और संस्कृति से भिन्न सभ्यता और संस्कृति का उपासक है। हम उसको शत्रु मानते हैं जो हमारी बात ठुकरा देता है, स्वीकार नहीं करता।
किन्तु हम अध्यात्म जगत् की इस सचाई पर ध्यान दें कि इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसका प्रतिपक्षी न हो। पक्ष का अस्तित्व प्रतिपक्ष पर टिका हुआ है । प्रतिपक्ष के अभाव में पक्ष जैसा कुछ होता ही नहीं। भगवान महावीर ने जिस महान् सत्य की घोषणा की थी, वह उसी साधना के आधार पर, अध्यात्म के आधार पर की थी। वह सत्य है-अनेकान्त । यह प्रतिपक्ष के स्वीकार का महान सिद्धान्त है। यह पक्ष और प्रतिपक्ष---- दोनों को समानरूप से स्वीकार करता है। एक को नकारने का अर्थ हैदूसरे को नकारना और एक को स्वीकारने का अर्थ है-दूसरे को स्वी-. कारना।
पक्ष एक सचाई है। प्रतिपक्ष भी एक सचाई है। हम 'समवृत्ति श्वास' का प्रयोग कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में श्वास की अनुलोम और विलोमगति होती है। हम एक नथुने से श्वास लेते हैं और दूसरे से उसे छोड़ते हैं । यह अनुलोम-विलोम प्रक्रिया है। एक है पक्ष और दूसरा है प्रतिपक्ष । हठयोग की भाषा में एक है इडा और एक है पिंगला। प्राण के तीन प्रवाह हैं- इडा, पिंगला और सुषुम्णा । जो बाएं नथुने से प्राण का प्रवाह आता है वह है इडा, जो दाएं नथुने से प्राण का प्रवाह आता है वह है पिंगला । जो प्राण का प्रवाह रीढ़ के मध्य से प्रवाहित होता है, सुषुम्णा से प्रवाहित होता है वह है 'सुषुम्णा' ! इडा चन्द्रस्वर है, समस्वर है, ठंडा है। पिंगला सूर्यस्वर है, गरम है । सुषुम्णा मध्यस्वर है।
इडा और पिंगला-दोनों विरोधी हैं। एक ठंडा है और दूसरा
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