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किसने कहा मन चंचल है
- 'बहुत अच्छा उपाय बताए देता हूं। तुम जंगली बिलाव बन जाओ, फिर भय नहीं रहेगा, तुम निर्भय बन जाओगे। बिल्ली तुमसे डरने लगेगी।' चूहा प्रसन्न हो गया उसने कहा-'उपाय बहुत अच्छा है। पर यह बताओ कि मैं बिलाव कैसे बन सकता हूं?' उल्लू बोला-मित्र ! यह कैसा प्रश्न ? क्या सब-कुछ मैं ही करूं? मैंने उपाय बता दिया कि तुम बिलाव बन जाओ । बिलाव कैसे बना जाता है, तुम बिलाब कैसे बन सकते हो-यह सब तुम्हारा काम है, मेरा नहीं। मेरा काम तो केवल उपाय बताना है। उपाय को काम में लेना तुम्हारा काम है।'
मुझे लगता है कि धर्म के क्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। धर्म के उपदेष्टाओं ने कुछ ऐसा ही किया है । उन्होंने कहा-'अच्छे बनो। ऐसा करो, ऐसा मत करो। यह करो, वह मत करो।' जब धर्म के उन उपदेष्टाओं को पूछते हैं कि अच्छा कैसे बना जाता है ? यह कैसे छोड़ा जाता है ? तब वे कहते हैं. हम तो उपदेशक हैं। हमने कह दिया, अब आपको सोचना है कि उस उपदेश के अनुसार कैसे बनना है।' यह बड़ा अजीब-सा लगता है कि धार्मिक उपदेष्टा यह कहे-'परमार्थी बनो, अहिंसक बनो, सत्यवादी बनो, पर उपाय नहीं बताते । उनकी क्रियन्विति का मार्ग प्रशस्त नहीं करते। वे भी उस अज्ञान पक्षी की तरह कह देते हैं कि अच्छी बातें भी हम बताएं और -उनकी क्रियान्विति का उपाय भी हम बताएं-यह दोहरी बात कैसे संभव हो सकती है ? यह एक भटकाव है । जब तक धर्म उपाय निर्दिष्ट नहीं करता, क्रियान्विति का मार्ग प्रशस्त नहीं करता, कोरी बड़ी-बड़ी बातें प्रस्तुत करता है, तब तक उस धर्म से कुछ भी रूपान्तरण होने वाला नहीं है। आदमी बदलने वाला नहीं है । ऐसे धर्म के प्रति अरुचि या अनास्था होती है तो आश्चर्य ही क्या है ! धर्म के प्रति नास्तिकता का मनोभाव, आत्मा और परमात्मा के प्रति नास्तिकता का मनोभाव, अध्यात्म के प्रति नास्तिकता का मनोभाव इन्हीं कारणों से पनपता है । धर्म की निस्सारता का भान होता है। व्यक्ति धर्म से दूर भाग जाता है । धर्म के प्रति उसके मन में घृणा पैदा हो जाती है । आज का युग इस बात का साक्षी है। आज बुद्धिवादी और विचारक, आज का युवक, धर्म से इसलिए दूर होता जा रहा है कि वह देखता है-धर्म की बातें बहुत बड़ी हैं । वह बड़ी-बड़ी बातें बनाता है, करताधरता कुछ भी नहीं । वह मोहक मदिरा की ऐसी प्याली पिलाता है जिससे पीने वाला नशे में हो जाता है, बेभान हो जाता है। यह स्थिति धार्मिकों के
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