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है। यहां आत्मा की स्थिति का अनुभव होने लगता है ।
जब हम अवचेतन मन में चले जाते हैं, वहां आत्मा की मूल स्थिति का अनुभव होने लगता है, मूल स्थिति का दर्शन होता है ।
'आत्मा के द्वारा आत्मा को देखें' - अर्थात् उस परमात्मा की अनुभूति करें जो उपलब्ध नहीं है । उस स्थिति को उपलब्ध करना और जो वर्तमान की स्थिति है उसे विस्मृत करना, आत्ममय बन जाना ही आत्मा के द्वारा आत्मा को देखना है ।
तर्कशास्त्र का कथन है कि दीपक को देखने के लिए दीपक की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि दीपक स्वयं प्रकाशमान है । जो स्वयं प्रकाशी होता है, उसको देखने के लिए दूसरे प्रकाश की जरूरत नहीं होती । सूरज उगा या नहीं - इसे जानने के लिए बिजली जलाने की आवश्यकता नहीं होती । और यदि कोई व्यक्ति सूरज को देखने के लिए बिजली जलाए तो वह समझदार नहीं माना जा सकता । सूर्यं स्वयं प्रकाशी है ।
किसने कहा मन चंचल है
तर्कशास्त्र का यह कथन प्रस्तुत प्रसंग में उलट जाता है । आत्मा को देखने के लिए आत्मा की जरूरत है, दीपक को देखने के लिए दीपक की जरूरत है, प्रकाश को देखने के लिए प्रकाश की जरूरत है । पहले हम दीया जलाएं और फिर सूर्य को देखें । आत्मा रूपी सूर्य को देखने के लिए किसी पार्थिव दीपक की जरूरत नहीं है । किन्तु हमारी परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा के बीच जो सघन अंधकार है उसे मिटाना है, उसे हटाना हैं । कषायों का अंधकार ज्ञानावरण-दर्शनावरण- मोह और अन्तराय - इन कर्मों का अंधकार या पर्दा - ये सब बीच में हैं । इन सबको चीरकर परम आत्मा तक पहुंचना कठिन होता है । बहिरात्मा और परमात्मा में बहुत दूरी है । बीच में अनगिन बाधाएं हैं । सबको तोड़कर आगे चलना श्रमसाध्य कार्य है । ये बाधाएं स्थूल नहीं हैं जो हमें इन आंखों से दीख सकें । वे सूक्ष्म हैं । यदि इन बाधाओं के परमाणुओं को बाहर निकालकर फैलाया जाय तो अनन्त विश्व में भी वे नहीं समा पाएंगे। हमारे भीतर यह अनन्त संसार समाया हुआ है । इतना सूक्ष्म है कि हमें उसके अस्तित्व का कुछ प्रत्यक्ष भान ही नहीं होता, क्योंकि हम सूक्ष्म को देखना जानते ही नहीं । सूक्ष्म को देखने की दृष्टि हमारे पास नहीं है, इसीलिए हमें उन सूक्ष्म बाधाओं के अस्तित्व का पूरा भान ही नहीं होता ।
हम अध्यात्म की यात्रा में सूक्ष्म को देखने का प्रयत्न करते हैं,
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