________________
१६०
किसने कहा मन चंचल है
करते हैं .---'धर्म करो, सारे दुःख मिट जाएंगे। अध्यात्म-साधना करो, दुःस्वमुक्ति प्राप्त कर लोगे।' यह दुःखों को मिटाने की घोषणा है, पर धर्म या अध्यात्म के पास सुख देने के लिए एक इंच जमीन नहीं है, एक गांव पर आधिपत्य नहीं है, कोई पदार्थ नहीं है, फिर वह सुख कैसे देगा ? फिर वह दुःख से छुटकारा कैसे करा पाएगा ? वह खाली हाथ है । न भूमि है, न पदार्थ है, न सत्ता है और न अधिकार है। फिर भी इतनी बड़ी घोषणा करना 'सव्वदुक्ख विमोक्खणं- सभी दुःखों से छुटकारा'- क्या यह हास्यास्पद बात नहीं है ?
यह प्रश्न वे व्यक्ति उठाते हैं जो यह मानते हैं कि सुख देने वाले हैं पदार्थ । अध्यात्म के लोगों ने एक प्रश्न उठाया कि यह बात समझ से परे है कि पदार्थ सुख देते हैं । यह बात मानी जा सकती है कि पदार्थ बीमारी का इलाज करने वाले हैं, किन्तु सुख देने वाले नहीं। रोटी खाने से सुख कहाँ मिलता । पेट में भूख की पीड़ा पैदा होती है और वह रोटी खाते ही समाप्त हो जाती है, कुछ समय के लिए शांत हो जाती है। इसे सुख मान लिया गया । समय बीतते ही फिर भूख लगती है और पीड़ा प्रारंभ हो जाती है। फिर रोटी खाते हैं और पीड़ा शांत हो जाती है। यह क्रम जीवनपर्यन्त चलता है। पेट की आग जलती है, रोटी का छींटा दिया, वह बुझ जाती है। फिर भभक उठती है । फिर शांत होती है । यह कैसा सुख ? बीमारी हुई । उसकी चिकित्सा की । बीमारी दब गयी। यह कैसा सुख?
___ मन अशांत होता है। आदमी सोचता है-शराब पीने से मन शांत हो जाएगा। शराब पीने वाले इसलिए शराब पीते हैं कि वे अपने-आपको भूल जाएं, मन की अशांति को भूल जाएं, मादकता आ जाए, मस्ती में झूम उठे, आनन्द में चले जाएं। शराब पीते हैं । मस्ती आती है । परन्तु यह कौन-सा सुख है ? यह कैसा सुख ? शराब पीने से विष शरीर में जाता है। स्नायुमंडल प्रभावित होता है । वह सताता रहता है । वह मिटता नहीं, शराब पीने से वह उपशांत होता है । जब तक मादकता रहती है तब तक पीड़ा उपशांत रहती है। ज्यों-ज्यों नशा उतरता है, पीड़ा उभर आती है। इसे हम सुख कैसे माने ?
___अध्यात्म के साधकों ने सुख की पहचान को एक कसौटी दी है । सुख वह है जो परिणामभद्र हो—जिसका परिणाम, जिसकी परिणति सुखद हो । परिणाम में जो दुःख पैदा न करे, वही वास्तव में सुख है। वर्तमान में जो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org