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यह नियत होता है। इसकी गति अबाध होती है। इसलिए यह शिला में प्रवेश कर सकता है, आकाश में उड़ सकता है, पानी में डूबा रह सकता है। इस लिङ्ग शरीर का निर्माण मन, बुद्धि, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय एवं पांच प्राण इन अठारह तत्त्वों से होता है। कुछ सांख्याचार्य लिङ्ग शरीर को सत्रह तत्त्वों से निर्मित मानते हैं।३४ वे इसमें अहंकार को अन्तर्भूत नहीं मानते हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार यह लिङ्ग शरीर ही पूर्व में किये गए कर्म के संस्कारों से समन्वित होकर पूर्व-पूर्व के स्थूल शरीर का परित्याग करते हुए कर्मफल के भोग के अनुरूप उत्तरोत्तर नाना प्रकार के नये स्थूल शरीर को धारण करता रहता है। लिङ्ग शरीर के अभाव में स्थूल शरीर का निर्माण नहीं हो सकता। जिस प्रकार जैन मान्यता के अनुसार कार्मण शरीर के अभाव में अन्य शरीरों का निर्माण नहीं हो सकता। यह लिङ्ग शरीर धर्म, ज्ञान, विराग, ऐश्वर्य तथा अधर्म, अज्ञान, राग एवं अनैश्वर्य नामक भावों से अधिवासित होकर नाना प्रकार के लोकों एवं योनियों में स्थूल शरीर को धारण करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता रहता है। इस शरीर के कारण स्थूल शरीर भोग करता है किंतु यह स्वयं निरुपभोग होता है।३५ सूक्ष्म शरीर
सांख्य दर्शन के कुछ विद्वान् लिङ्ग शरीर से भिन्न सूक्ष्म शरीर की सत्ता स्वीकार करते हैं। लिङ्ग एवं स्थूल शरीर से भिन्न एक सूक्ष्म शरीर होता है, जो त्रयोदश कारणों का बना होता है। लिङ्ग के एक होते हुए भी सूक्ष्म शरीर प्रतिजन्म में परिवर्तित हो जाता है।३६
स्थूलशरीर
लिङ्ग की रचना पुरुष की भोग की सिद्धि के लिए हुई है किंतु वह स्वतः विषयों का भोग करने में समर्थ नहीं है अतः स्थूल शरीर के द्वारा ही उनका भोग संभव है। स्थूल शरीर पांचों स्थूल भूतों के योग से बनता है अतः वह प्रत्यक्ष ग्राह्य है। कतिपय सांख्य सूत्रों के उल्लेख से ज्ञात होता है कि कुछ लोग आकाश रहित चार भूतों से तथा अन्य कुछ केवल पार्थिव तत्त्वों से ही स्थूल शरीर की सृष्टि मानते हैं। स्थूल शरीर अनन्त हैं पर योनिभेद से इनके वर्गीकरण भी किये जाते हैं। पृथक्योनिभेद से इनकी रचना के भी विभिन्न प्रकार हैं।
मनुष्य शरीर को षाट् कौशिक अर्थात् छह कोशों वाला कहा जाता है। सांख्य के अनुसार गर्भस्थ शिशु को रोम, रक्त एवं मांस माता से प्राप्त होते हैं
२१०. व्रात्य दर्शन
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