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तत्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञ भाष्य में उपर्युक्त हेतुओं के साथ ही कुछ अन्य हेतु भी इस शरीर को औदारिक कहने के दिये हैं।
उदार अर्थात् जिसकी छाया/आभा उत्कृष्ट है अथवा जिसका शरीर प्रमाण उत्कृष्ट है वह औदारिक है। औदारिक शरीर अपने उपादान कारणभूत शुक्र, शोणित को ग्रहण कर निरन्तर मृत्यु पर्यन्त अवस्थान्तर को प्राप्त करता है। उम्र के अनुसार बढ़ता है। यह वृद्धावस्था से आक्रान्त होता है। इस शरीर का शरीर बन्ध शिथिल हो जाता है। त्वचा में सलवटें पड़ जाती है अतः यह शरीर शीर्ण होता है। इसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है अतः यह औदारिक है।१३
औदारिक शरीर का छेदन-भेदन हो सकता है। इसको पकड़कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है। कहीं जाने से रोका जा सकता है। जलाया जा सकता है। वायु के वेग से उड़ाया जा सकता है। अन्य शरीरों में ये गुण धर्म नहीं पाये जाते हैं। उदार शब्द का एक अर्थ स्थूल है अर्थात् जो स्थूल शरीर है वही औदारिक है। वस्तुतः औदारिक शरीर की प्रसिद्धि इसके अन्य अर्थों की अपेक्षा स्थूल शरीर के रूप में ही अधिक है। औदारिक शरीर की संख्या
औदारिक शरीरधारी जीव अनन्त है किन्तु औदारिक शरीर की संख्या असंख्य ही होती है। जीव अनन्त एवं शरीर असंख्य यह कैसे संभव है? इस प्रश्न को समाहित करते हुए कहा गया कि प्रत्येक शरीरी जीव असंख्य होते हैं अतः उनके शरीर भी असंख्य होंगे तथा साधारण शरीर जीव अनन्त होते हैं किंतु वे एक शरीर में अनन्त जीव रहते हैं, उनके शरीर असंख्य होते हैं इस प्रकार औदारिक शरीरधारी जीवों के अनन्त होने पर भी औदारिक शरीर तो असंख्य ही होते हैं।
शरीर एवं काय
जैन परम्परा में शरीर के लिए काय शब्द का प्रयोग भी होता है। शरीर . एवं काय पर्यायवाची शब्द है। जिनभद्रगणी ने काय के चार अर्थ किये हैं-निवास. चय, विशरण एवं अवयवों का सम्यक् आधान। काय में जीव का निवास होता है। उसमें प्रतिक्षण पुद्गलों का उपचय होता है, काय निरन्तर नष्ट हो रही है तथा उसके अवयव व्यवस्थित रूप से संयोजित होते हैं। जैनधर्म में पड्जीवनिकाय प्रसिद्ध है। मुनि सर्वप्रथम इन पजीवनिकाय को ही अभय प्रदान कर अहिंसा का पालन करता है। पृथ्वीकाय, अप्काय आदि पड्जीवनिकाय कहलाते हैं। पृथ्वी
व्रात्य दर्शन . २०३
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