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साम्यवादी प्रणाली में कम्यूनों का विकास हुआ, किन्तु उन्हें लौटना पड़ा। यह समझ में आ गया कि वैयक्तिक स्वार्थ की पूर्ति हुए बिना आदमी में कोई अन्तःप्रेरणा नहीं जाग सकती। हमारी सबसे बड़ी अन्तःप्रेरणा है स्वार्थ । वैयक्तिक स्वार्थ होता है तब आदमी बहुत अच्छा काम करता है, मनोयोग से करता है। जहां समूह के लिए करना पड़ता है, वहां मनोवृत्ति दूसरे प्रकार की बन जाती है। वह सोचता है-सब काम कर रहे हैं, मैं अकेला नहीं करूंगा तो क्या फर्क पड़ेगा। इसी तरह दूसरे-तीसरे की मानसिकता बनती जाती है। प्रेरणा है व्यक्तिगत स्वार्थ सौधर्म चक्रवर्ती आकाशमार्ग से जा रहा था। सौलह हजार देव उसकी पालकी को उठाए हुए थे। एक देव ने सोचा-इतने लोग लगे हुए हैं, एक मैं छोड़ दूंगा तो क्या होगा ? उसी क्षण यह विचार सोलह हजार देवों के मन में भी संक्रांत हुआ और एक साथ सबने पालकी छोड़ दी। चक्रवर्ती समुद्र' में गिर कर डूब गया।
राजा ने एक नव-निर्मित विशाल तालाब को दूध से भरे जाने की राजाज्ञा प्रसारित की। राज्य के हर व्यक्ति को एक-एक लोटा दूध उस तालाब में डालने का निर्देश दिया गया। सबके मन में यह विचार संक्रांत हो गया-मैं एक लौटा पानी डाल दूंगा तो क्या फर्क पड़ेगा ? प्रातः तालाब पानी से लबालब भरा था।
जहां कम्यून है, समुदायवाद है, वहां प्रेरणा दूसरा काम करती है। इसीलिए जहां आर्थिक विकास का प्रश्न था, प्रजातंत्रीय प्रणाली में जितना विकास हो सका, व्यक्तिगत संपत्ति की स्वतंत्रता में जितना विकास हो सका, उतना नियंत्रित प्रणाली में नहीं हो पाया।
व्यक्तिगत स्वार्थ एक बहुत बड़ी प्रेरणा है। इस सचाई को हम अस्वीकार न करें। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता-सब स्वार्थ को छोड़ कर परमार्थ का जीवन जीएं। यह असंभव बात होगी और कोई मानेगा भी नहीं। महत्त्वपूर्ण और जरूरी यह है कि स्वार्थ को न छोड़ पाएं तो उसका सीमाकरण जरूर करें। ऐसा स्वार्थ भी नहीं होना चाहिए, जो दूसरे के स्वार्थ में बाधा डाले, कठिनाई पैदा करे। कोरा स्वार्थ किसी काम का नहीं होता।
कैसे करें संस्कारों का निर्माण ? / १७१
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