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दूसरों पर दोषारोपण करता है। जब तक आदमी में यह दायित्वबोध नहीं जागेगा, समस्या का समाधान नहीं होगा। कर्मवाद का यह एक मूलभूत
और शाश्वत सिद्धान्त है कि व्यक्ति अपने कृत के लिए स्वयं उत्तरदायी है। प्रत्येक व्यक्ति अपने इस दायित्व का अनुभव करे–'मैं क्या कर रहा हूं, मैंने क्या किया है और मुझे क्या करना चाहिए। जो दुर्घटना मेरे आसपास घटित हो रही है, वह कहीं मेरे कर्म का ही फल तो नहीं है। किसी का बुरा किया था, क्या इसीलिए आज मेरे साथ भी बुरा हो रहा है ? ऐसा चिंतन प्रस्फुटित हो जाए तो शायद आचारशास्त्रीय शुद्धि घटित हो जाए, अनैतिकता की समस्या भी काफी हद तक सुलझ जाए, बुराइयां भी काफी कम हो जाएं। यह एक शाश्वत स्वर है-- 'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सहाण य। अगर इस स्वर को सुन सकें और जीवन में साध सकें तो अतीत में जो प्रमाद हुआ है, भूलें और गलतियां हुई हैं, उनसे एक सबक मिलेगा, आगे का हमारा रास्ता बहुत साफ और निष्कंटक हो जायेगा। इस स्थिति में हम अपने भीतर स्थित अग्निकुण्ड को भी देख सकेंगे, हिमालय अथवा हिमकुण्ड को भी देख सकेंगे। इतना ही नहीं, हम अपनी कर्तृत्व शक्ति का उस दिशा में नियोजन भी कर पाएंगे, जो आत्मा के उन्नयन के लिए अभिप्रेत और अपेक्षित है।
१४४ / विचार को बदलना सीखें
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