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मैत्री तथा समत्व की अनुभूति है, आत्मा की अनुभूति है। जो व्यक्ति आत्मिक धरातल पर नहीं जीता, आत्मा की अनुभूति नहीं करता, वह अहिंसा का आचरण नहीं कर सकता। मैं अहिंसा के शिखर को छूने की बात नहीं कर रहा हूं, किन्तु एक बहुत व्यावहारिक बात कर रहा हूं। सामाजिक जीवन में न्यूनतम इतनी अहिंसा तो होनी ही चाहिए और वह है अनावश्यक हिंसा का परित्याग। एक सामाजिक प्राणी जीता है। उसके जीने में कुछ अनिवार्य हिंसा होती है। हम इसे अस्वीकार नहीं करेंगे, हिंसा का हम समर्थन भी नहीं करेंगे किन्तु इस सचाई को स्वीकार करके चलें कि अनिवार्य हिंसा होती है। जो व्यक्ति अहिंसा के क्षेत्र में प्रविष्ट होना चाहता है, सामाजिक जीवन में अहिंसा का मूल्य आंकता है, अहिंसक समाज की दिशा में प्रस्थान करना चाहता है और यह चाहता है कि समाज हिंसा, अराजकता और आतंक का अखाड़ा न बने, उसके लिए एक न्यूनतम आचार-संहिता है कि वह अनावश्यक हिंसा न करे।
पहला परिणाम अनावश्यक हिंसा से बचने का सबसे पहला परिणाम होता है-पर्यावरण के प्रदूषण की समाप्ति। आज पर्यावरण का जो प्रदूषण बढ़ा है, उसमें अनावश्यक हिंसा का बहुत बड़ा हाथ है। कितना पानी का अपव्यय, कितने जंगलों की कटाई, कितने पशु-पक्षियों का निर्ममता से शिकार, कितनी वनस्पतियों का विनाश, कितनी अनावश्यक भूमि का खनन और दोहन-यह सब अपने स्वार्थ के लिए इतनी मात्रा में हो रहा है कि वातावरण तेजी से प्रदूषित होता जा रहा है। यदि अनावश्यक हिंसा टल जाए तो पृथ्वी पर शान्ति कायम हो जाए, आदमी भी खुशहाल हो जाए।
आवश्यक है संवेदनशीलता अहिंसा के लिए आवश्यक है-संवेदनशीलता। दूसरों को कष्ट देते समय यह अनूभूति हो कि यह कष्ट मैं दूसरों को नहीं, स्वयं को दे रहा हूं। यही संवेदनशीलता है। जिस समाज में संवेदनशीलता नहीं होती, वह समाज अपराधियों, हत्यारों या क्रूरता के खेल खेलने वालों का समाज बन जाता है। उसे सभ्य और शिष्ट समाज नहीं कहा जा सकता। इसलिए आवश्यक
१०८ / विचार को बदलना सीखें
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