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३६ / जैनतत्त्वविद्या मनुष्य का होता है। उसकी अनावृत चेतना के दर्पण पर मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्य स्पष्ट रूप से बिम्बित हो जाते हैं।
उपयोग दो प्रकार का होता है—साकार उपयोग और अनाकार उपयोग। इन्हें दूसरे शब्दों में भिन्नाकार प्रतीति और एकाकार प्रतीति अथवा ज्ञान और दर्शन भी कहा जाता है । ज्ञानोपयोग भिन्नाकार प्रतीति है। इसमें ज्ञेय पदार्थ की भिन्न-भिन्न आकृतियां बनकर उभर जाती हैं । दर्शन एकाकार प्रतीति है । इसमें ज्ञेय पदार्थ के अस्तित्व मात्र का बोध होता है, पर वह विशद रूप में नहीं होता। उसका कोई आकार नहीं बन पाता, इसलिए उसे निराकार उपयोग कहा जाता है। पांच ज्ञान
साकार उपयोग के आठ भेद हैं। उनमें ज्ञान के पांच भेद हैं१. मतिज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४. मनःपर्यवज्ञान और ५. केवलज्ञान ।
मतिज्ञान-पांच इन्द्रियों और मन के द्वारा चेतना का जो व्यापार होता है, वह मतिज्ञानोपयोग है।
श्रुतज्ञान-शब्द, संकेत, शास्त्र आदि माध्यमों से इन्द्रियों और मन के द्वारा जो ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञानोपयोग है । अथवा यों कहना चाहिए कि मतिज्ञान ही प्रगाढ़ अवस्था को प्राप्त कर श्रुतज्ञान बन जाता है। मतिज्ञान वर्तमान में होता है
और श्रुतज्ञान त्रैकालिक है । मतिज्ञान मूक है। वह केवल अपने लिए है । श्रुतज्ञान शब्दमय है । वह दूसरों को बोध देने में सक्षम है।
अवधिज्ञान-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना चेतना के दर्पण पर मूर्त पदार्थों के जो बिम्ब उभरते हैं, उन्हें पकड़ने वाला उपयोग अवधिज्ञानोपयोग । यह ज्ञान अतीन्द्रिय है। फिर भी इसमें तीव्र एकाग्रता की अपेक्षा रहती है । इस दृष्टि से ही इसका निरुक्त किया गया है—'अवधानम् अवधिः' अवधान अर्थात् एकाग्रता। ध्यान की गहराइयों में उतरे बिना अवधिज्ञानोपयोग हो ही नहीं सकता।
मन:पर्यवज्ञान-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना सामने वाले व्यक्ति की मानसिक अवस्थाओं-आकृतियों को जानना मनःपर्यवज्ञानोपयोग है । यह विशिष्ट अवधिज्ञान से भी हो सकता है। पर मनःपर्यवज्ञान से जो बोध होता है, वह अधिक स्पष्ट और विशद होता है। जिस प्रकार एक फिजिशियन आंख, नाक, गला आदि शरीर के सभी अवयवों की जांच करता है, उसी प्रकार आंख, नाक, गला आदि का परीक्षण विशेष डॉक्टर भी करता है। किन्तु दोनों की जांच और चिकित्सा में अन्तर रहता है। एक ही कार्यक्षेत्र होने पर भी विशेषज्ञ के ज्ञान की तुलना में साधारण
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