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________________ पह १९२ / जैनतत्त्वविद्या १०. कर्म के चार कार्य हैं१. आवरण ३. अवरोध २. विकार ४. शुभाशुभ का संयोग ११. कर्मबन्ध के चार प्रकार हैं१. एक कर्म (सातवेदनीय) का बंध ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में २. छह कर्मों (मोहनीय और आयुष्य को छोड़कर) का बन्ध दूसरे गुणस्थान में ३. सात कर्मों (आयुष्य को छोड़कर) का बन्ध तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थान में ४. सात-आठ कर्मों का बन्ध पहले, दूसरे, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थान में १२. कर्म बन्धन के आठ हेतु हैं १. ज्ञानावरणीय कर्म - ज्ञान के प्रति असद् व्यवहार २. दर्शनावरणीय कर्म- दर्शन के प्रति असद् व्यवहार ३. वेदनीय कर्म - दुःख देने और दुःख न देने की प्रवृत्ति ४. मोहनीय कर्म - तीव्र कषाय का प्रयोग ५. आयुष्य कर्म नरक आयुष्य - क्रूर व्यवहार तिर्यंच आयुष्य - वंचनापूर्ण व्यवहार मनुष्य आयुष्य - ऋजु व्यवहार देव आयुष्य - संयत व्यवहार ६. नाम कर्म - कथनी-करनी की समानता और असमानता ७. गोत्र कर्म - अहंकार और उसका विसर्जन ८. अन्तराय कर्म - किसी के कार्य में बाधा डालना १३. आठ कर्मों में बन्ध-कारक कर्म दो हैं १. मोहनीय कर्म से अशुभ कर्म का बन्ध २. नाम कर्म से शुभ कर्म का बन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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