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________________ वर्ग ४, बोल २२ / १७३ काल- घड़ा शीतकाल में बना हुआ है, गर्मी में बना हुआ नहीं है। भाव- घड़ा पानी रखने का और लाल रंग का है । वह घी रखने का ___और काले रंग का नहीं है। स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति-वस्तु में अस्तित्व धर्म भी है, नास्तित्व धर्म भी है तो क्या ये दोनों साथ-साथ नहीं रहते हैं? यदि इनका सहअस्तित्व है तो एक धर्म का प्रतिपादन क्यों? इस प्रश्न के उत्तर में तीसरा विकल्प यह बनता है कि उसमें किसी अपेक्षा से अस्तित्व है और किसी अपेक्षा से नास्तित्व है। इस कथन के साथ ही एक समस्या और खड़ी हो जाती है कि वस्तु में अस्तित्व एवं नास्तित्व एक साथ रहते हैं, फिर इनका प्रतिपादन क्रमिक क्यों? पहले अस्तित्व और उसके बाद नास्तित्व क्यों? क्या जिस काल में अस्तित्व है, उस काल में नास्तित्व नहीं है? यदि है तो फिर इनका एक साथ प्रतिपादन क्यों नहीं ? इस प्रश्न के समाधान ने चौथा भंग उत्पन्न किया-स्यात् अवक्तव्य । __ स्यात् अवक्तव्य-वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्म एक साथ रहते हैं। इस सहावस्थिति को अभिव्यक्त करने वाला शब्द है-अवक्तव्य । इसका अर्थ है-वाणी का अविषय । एक समय में एक ही शब्द बोला जाता है और एक शब्द के द्वारा एक ही अर्थ का प्रतिपादन किया जा सकता है । इस स्थिति में एक समय में एक साथ दो अर्थों को अभिव्यक्ति देने के लिए 'अवक्तव्य' यह सांकेतिक शब्द गढ़ा गया। इसके द्वारा एक साथ दोनों अर्थों का बोध हो जाता है। सापेक्ष दृष्टि से वस्तु को प्रतिपादित करने के लिए मुख्य रूप से ये चार भंग या विकल्प काम में आते हैं, शेष तीनों विकल्प इनके संयोग से बनते हैं। मूलतः विकल्प चार ही हैं। पर दार्शनिक जगत् में सप्तभंगी प्रसिद्ध है । इस दृष्टि से स्याद्वाद के सात प्रकार बतलाए गए हैं। स्याद्वाद शब्द जैनों का है। किन्तु तत्त्व-निरूपण की दृष्टि से यह सबको मान्य हो सकता है । स्याद्वाद का मूल उत्स तीर्थंकरों की वाणी है। इसको दार्शनिक रूप उत्तरवर्ती आचार्यों ने दिया है। स्याद्वाद जितना दार्शनिक है, उतना ही व्यावहारिक है। इसलिए किसी भी क्षेत्र में इसे उपेक्षित नहीं किया जा सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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