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________________ १७० / जैनतत्त्वविद्या २१. निक्षेप के चार प्रकार हैं१. नाम ३. द्रव्य २. स्थापना ४. भाव हमें किसी पदार्थ को समझना या ग्रहण करना हो तो उसके लिए शब्द का प्रयोग करते हैं। क्योंकि हमारे पास वस्तु की पहचान कराने का माध्यम शब्द ही है । अर्थ और शब्द में परस्पर वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध है । इस सम्बन्ध स्थापना का उद्देश्य है व्यवहार का निर्वाह । अकेला व्यक्ति अव्यावहारिक होता है। उसे न बोलने की अपेक्षा है और न सुनने की, किन्तु जब वह समूह में जीता है और सापेक्ष होकर जीता है तो उसे व्यवहार चलाने के लिए किसी संकेत पद्धति का विकास करना ही होता है । संकेत काल में जिस वस्तु को समझने या समझाने के लिए जिस शब्द को गढा जाता है, वह उसी अर्थ का प्रतिनिधित्व करता रहे, तब तो काम चलता रहता है। किन्तु आगे चलकर उसके अर्थ का विस्तार हो जाता है। वैसे भी हर शब्द अनेक अर्थों का वाचक होता है । इस स्थिति में हम किस शब्द के द्वारा किस अर्थ को लक्ष्य कर अपनी बात कह रहे हैं, इसे दूसरा कैसे समझ सकता है। शब्द प्रयोग को लेकर उत्पन्न हुई समस्या के समाधान हेतु निक्षेप पद्धति अस्तित्व में आई। निक्षेप का अर्थ है-प्रस्तुत अर्थ का बोध देने वाली शब्द-संरचना । प्रकारान्तर से निक्षेप को इस प्रकार भी परिभाषित किया जा सकता है-'प्रस्तुतार्थबोधाय अर्हदादिशब्दानां नामादिभेदेन निधानं निक्षेपः' । प्रासंगिक अर्थ का बोध कराने के लिए अर्हत् आदि शब्दों का नाम, स्थापना आदि भेदों के द्वारा न्यास करना निक्षेप कहलाता है। इसके द्वारा अर्थ का शब्द में आरोपण कर इष्ट अर्थ का बोध किया जाता है। सामान्यतः हर शब्द अनेकार्थ होता है। उसके कुछ अर्थ प्रासंगिक होते हैं और कुछ अप्रासंगिक । प्रासंगिक अर्थ का ग्रहण और अप्रासंगिक अर्थों का परिहार करने के लिए व्यक्ति शब्द के सब अर्थों को अपने दिमाग में स्थापित करता है। ऐसा किए बिना कोई भी शब्द अपने प्रयोजन को पूरा नहीं कर सकता। जिस शब्द के जितने अर्थों का ज्ञान होता है, उतने ही निक्षेप हो सकते हैं। पर संक्षेप में उनका वर्गीकरण किया जाए तो निक्षेप के चार प्रकार होते हैं—नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। नाम निश्लेप-शब्द के मल अर्थ की अपेक्षा किए बिना ही किसी व्यक्ति या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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