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________________ वर्ग४ बोल १ | १९ १. सत् के तीन लक्षण हैं १. उत्पाद २. व्यय ३. धौव्य चतुर्थ वर्ग के प्रथम बोल में सत् की चर्चा है । सत् अस्तित्व का प्रतीक है। विश्व में जितने अस्तित्ववान् पदार्थ हैं, वे सब सत् हैं । जड़ और चेतन—दोनों प्रकार के पदार्थों का समावेश सत् में हो जाता है। इस दृष्टि से सत्, पारमार्थिक वस्तु, तत्त्व और पदार्थ एक ही अर्थ के बोधक शब्द हैं। पदार्थ के स्वरूप के संबंध में सब दार्शनिक एकमत नहीं हैं। कुछ दार्शनिक पदार्थ को अनित्य-परिवर्तनशील मानते हैं और कुछ दार्शनिक उसे नित्य-स्थायी मानते हैं। जैनदर्शन पदार्थ को परिवर्तनशील भी मानता है और स्थायी भी। इस दृष्टि से उसे परिभाषित किया गया है- 'उत्पादव्ययधौव्यात्मकं सत्' । उत्पाद उत्पन्न होना, व्यय–विनाश होना और धौव्य-स्थायित्व होना । ये तीनों बातें युगपत्-एक साथ जिसमें घटित होती हैं, वही सत् होता है। इसमें उत्पाद और विनाश परिर्वतनशीलता के सूचक हैं तथा धौव्य नित्यता का सूचक है। परिवर्तनशीलता और नित्यता दोनों साथ रहकर ही सत् (पदार्थ) को पूर्णता देते हैं। केवल उत्पाद, केवल व्यय या केवल ध्रौव्य सत् का लक्षण नहीं बन सकता। प्रश्न हो सकता है कि एक ही पदार्थ में एक साथ उत्पाद, व्यय और धौव्य की संगति कैसे बैठ सकती है? क्योंकि ये तीनों विरोधी तत्त्व हैं । उत्पाद और व्यय के साथ स्थायित्व कैसे हो सकता है और स्थायित्व में उत्पाद तथा व्यय कैसे हो सकते हैं? ऊपर-ऊपर से देखने पर यहां विसंगति की प्रतीति होती है, पर सच्चाई यह है कि इनके बिना किसी पदार्थ की संगति हो ही नहीं सकती। उदाहरण के लिए अनेक पदार्थों को उपस्थित किया जा सकता है। जैसे—सोना, दूध, पानी आदि। सोना, दूध और पानी ध्रुव तत्त्व हैं। सोने से कड़े, कंगन, अंगूठी आदि आभूषण बनाए जाते हैं। यह उत्पाद और विनाश की प्रक्रिया है। दूध से दही, खीर आदि बनाए जाते हैं। यह भी उत्पाद और विनाश का क्रम है। इसी प्रकार पानी से बर्फ. भाप आदि पदार्थ बनते हैं। इन प्रतीकों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उत्पाद, विनाश और धौव्य साथ-साथ रहते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर भगवान महावीर ने त्रिपदी की प्ररूपणा की-उप्पण्णे इ वा, विगमे इ वा, धुवे इ वा। पदार्थ उत्पन्न भी होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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