SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२ / जैनतत्त्वविद्या साधारण वनस्पति अर्थात् एक शरीर में अनन्त जीव। इसे निगोद भी कहते हैं। निगोद के जीव दो प्रकार के होते हैं-स्थूल और सूक्ष्म । स्थूल निगोद में पांच प्रकार की काई, कन्दमूल आदि दृश्य शरीर वाले जीव होते हैं। निगोद के सूक्ष्म जीव अव्यवहार राशि के जीव हैं। ये सारे लोक में व्याप्त हैं। ये ऐसे जीव हैं, जो अनादिकाल से जीवों के इसी वर्ग में उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। इन जीवों को जब तक इस वर्ग से बाहर निकलने का अवसर नहीं मिलता, ये अव्यवहार राशि के जीव कहलाते हैं। अव्यवहार राशि के सब जीव समान हैं। इनकी अवगाहना, स्थिति, आहार, उच्छ्वास-नि:श्वास आदि में कोई अन्तर नहीं है। इन जीवों के जन्म और मृत्यु भी साथ-साथ घटित होते हैं। ऐसा साम्य जीवों के किसी भी वर्ग में नहीं मिल सकता। इन जीवों का आयुष्य बहुत सूक्ष्म है। विज्ञान की तो वहां तक पहुंच ही नहीं है। एक श्वासोच्छ्वास अर्थात् नाड़ी का एक स्पंदन जितने समय में होता है, उतने छोटे-से काल में ये जीव सतरह बार जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं । संख्या में ये जीव इतने अनन्त हैं कि इनका कभी अन्त हो ही नहीं सकता। इस वर्ग के कुछ जीव काललब्धि के योग से व्यवहार राशि में संक्रांत होते हैं। व्यवहार राशि के जीव पुन: अव्यवहार राशि में नहीं जाते । इसका अर्थ यह है कि अव्यवहार राशि से जीवों का निर्यात तो होता है, पर आयात नहीं होता। व्यवहार राशि से जितने जीव मुक्त होते हैं, उनकी क्षतिपूर्ति अव्यवहार राशि से होती रहती है। अव्यवहार राशि के इन जीवों की कभी समाप्त नहीं होने वाली राशि और अनादिकाल से इनकी एक ही वर्ग में उत्पत्ति की बात किसी तर्क से प्रमाणित भले ही न हो, पर यह एक ऐसा सच है, जिसे नकारा नहीं जा सकता । यह एक अहेतुगम्य सिद्धांत है। इसी के आधार पर यह कहा जाता है कि संसार कभी जीव-शून्य नहीं होगा। इसलिए अव्यवहार राशि के इस विचित्र जीव-जगत् के संबंध में किसी प्रकार के संदेह को अवकाश नहीं है। भव्य-अभव्य संसारी जीवों के दो-दो वर्गों में दूसरा वर्ग भव्य और अभव्य का है। भव्य का अर्थ है योग्य और अभव्य का अर्थ है अयोग्य । सामान्यत: हर व्यक्ति किसी न किसी बात में योग्य होता ही है, पर यहां योग्यता और अयोग्यता किसी शिल्प या विद्या की नहीं है । क्योंकि इस क्षेत्र में योग्य व्यक्ति भी अभव्य हो सकते हैं। यहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy