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१० / जैनतत्त्वविद्या
२. जीव के दो प्रकार हैं१. सिद्ध
२. संसारी संसार में जितने पदार्थ हैं, वे जीव और अजीव इन दो तत्त्वों में समा जाते हैं। यह वर्गीकरण संग्रहनय की दृष्टि से है। इसमें एक दृष्टि से सारा संसार बंध गया। पर यह दृष्टिकोण व्यावहारिक कम है। किसी भी तत्त्व को व्यावहारिक बनाए बिना वह जन-भोग्य नहीं बन पाता। इसलिए उक्त वर्गीकरण को व्यवहार नय की दृष्टि से समझना भी जरूरी है। इस क्रम में हम सबसे पहले जीव तत्त्व को लेते हैं ।
जीव के दो प्रकार हैं--सिद्ध और संसारी। एक परमात्मा है और दूसरा आत्मा। एक पूर्ण विकसित है, दूसरा अल्प विकसित । एक निरावरण है, दूसरा सावरण। एक मुक्त है, दूसरा बद्ध । एक विदेह है, दूसरा सदेह । एक अकर्म है, दूसरा सकर्म । एक अक्रिय है, दूसरा सक्रिय । एक जन्म और मरण की परम्परा से अतीत है, दूसरा इस परम्परा का वाहक है। ये दोनों ही चेतना-संवलित हैं, किन्तु इनके स्वरूप में बहुत बड़ा अन्तर है। ___सिद्धावस्था आत्मा की शुद्धावस्था है। वहां केवल जीव का ही अस्तित्व है। अनादि काल से आत्मा के साथ चिपके हुए कर्म पुद्गल उस स्थिति में टूटकर अलग हो जाते हैं। वहां केवल आत्मा की ज्ञान-दर्शनमयी सत्ता का अस्तित्व है। उस अस्तित्व की पहचान परमात्मा, मुक्तात्मा, सिद्ध, परमेश्वर, ईश्वर आदि अनेक नामों से की जा सकती है।
संसारी आत्मा वह है, जो संसरण करती है—बार-बार जन्म और मरण करती है। संसारी आत्मा का पूर्वजन्म है और पुनर्जन्म होता रहता है। एक इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर पांच इन्द्रिय वाले जीवों तक और अनिन्द्रिय (केवलज्ञानी) जीव भी इस वर्ग में समाविष्ट हो जाते हैं। इस वर्ग के जीव अनादिकाल से संसारी हैं और तब तक संसारी ही रहेंगे जब तक समस्त कर्मों का क्षय करके मुक्त नहीं बन जाएंगे। संसारी जीवों के अनेक वर्ग बन सकते हैं, जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे।
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