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११२ / जैनतत्त्वविद्या
होता, भीतर ही भीतर कर्म - शरीर (संस्कार शरीर) में विस्फोट करने की प्रक्रिया चलती रहती है । मोक्ष - साधना का अन्तरंग कारण होने से इस तप को आभ्यन्तर तप कहा जाता है । इसके भी छह प्रकार हैं- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग।
प्रायश्चित्त-- दोष की विशुद्धि के लिए जो प्रयत्न किया जाता है, वह प्रायश्चित्त है । प्रायश्चित्त के अनेक प्रकार हैं । वही व्यक्ति प्रायश्चित्त स्वीकार करता है, जो ऋजु होता है और जिसके सामने अपनी आत्मा को निर्मल बनाने का लक्ष्य रहता है ।
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विनय-विनय के दो अर्थ हैं— कर्मों का अपनयन और बड़ों का बहुमान । यह प्रवृत्त्यात्मक विनय है । इसका निवृत्तिपरक अर्थ है — आशातना न करना । आशातना अर्थात् असद् व्यवहार । आशातना का अभाव और बहुमान का भाव, यह विनय की परिभाषा है। इससे ज्ञान, दर्शन और चारित्र की विशेष निर्मलता होती है तथा मन, वचन और काया की पवित्रता सधती है ।
वैयावृत्त्य —— सहयोग की भावना से सेवा कार्य में जुड़ना वैयावृत्त्य कहलाता है । इस तप की आराधना करने वाला आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित आदि की अपेक्षाओं को समझकर सेवा - भावना और कर्त्तव्यभावना की प्रेरणा से उनका सहयोगी बनता है । पूर्ण आत्मार्थी भाव का विकास होने से ही वैयावृत्त्य किया जा सकता है।
स्वाध्याय -- सत्-शास्त्र के अध्ययन का नाम स्वाध्याय है । यह आत्मलीनता की स्थिति में ही हो सकता है । अध्येता को आत्मा से हटाकर पदार्थ जगत् की ओर धकेलने वाला अध्ययन स्वाध्याय की कोटि में नहीं आ सकता ।
ध्यान — किसी एक आलम्बन पर मन को स्थापित करने अथवा मन, वचन और काया के निरोध को ध्यान कहा जाता है । ध्याता और ध्येय के बीच पूर्ण रूप से तादात्म्य घटित होने की स्थिति में ही ध्यान हो पाता है अन्यथा नहीं ।
व्युत्सर्ग- व्युत्सर्ग का अर्थ है विसर्जन करना, छोड़ना । यह अपने शरीर का हो सकता है, वस्त्र - पात्र आदि उपकरणों का हो सकता है, किसी के सहयोग का हो सकता है और भोजन - पानी का भी हो सकता है ।
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