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७. गुणों का स्रोत
अच्छाई के फैलाव की प्रक्रिया
बुराई और अच्छाई दो शाश्वत तत्त्व हैं। पर दोनों की प्रकृति अलगअलग है। बुराई को बढ़ावा देने की आवश्यकता नहीं, वह स्वयं तेजी से बढ़ती है । पर अच्छाई प्रयास करने पर भी मुश्किल से बढ़ती है। बुराई के पंख होते हैं, अच्छाई के नहीं, इसलिए उसे फैलाने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है। कुछ लोग इस भाषा में सोचते हैं कि अच्छाइयों को फैलाने के लिए धुआंधार प्रचार करना चाहिए। कोई कहता है-उसके लिए राज्य का सहारा लिया जाना चाहिए। कोई कहता है-धनवानों का सहयोग लिया जाना चाहिए। कोई कहता है---अच्छाइयों का अधिक-से-अधिक प्रचार होना चाहिए, प्रदर्शन होना चाहिए। पर मेरी दृष्टि में ये बातें बहुत कार्यकारी नहीं हैं । प्राथमिक अपेक्षा यह है कि जो अच्छाई को फैलाना चाहे, वह सबसे पहले स्वयं उसके अनुकूल आचरण करे, क्योंकि मनुष्य से बढ़कर पूंजी, प्रचार और प्रदर्शन नहीं हैं । सब कुछ मनुष्य है। वह यदि कुछ करना चाहे तो सबसे पहले अपना सुधार करे। दूसरे के निर्माण के नशे में कहीं अपने को न भूल जाए। यह एक सचाई है कि सुधार और निर्माण के संदर्भ में सोचते तो बहुत-से लोग हैं, पर मन से चाहने वाले कम हैं। फिर करने वाले तो उनसे भी कम हैं। अणुव्रत आन्दोलन का यही उद्देश्य है कि सबसे पहले व्यक्ति का सुधार हो। व्यक्ति-व्यक्ति के सुधार से समाज, राष्ट्र और विश्व के सुधार का मार्ग स्वत: प्रशस्त हो जायेगा। अणुव्रत की उपयोगिता
___ बहुत सारे लोग अणुव्रत के नियमों को आदर्श मानते हैं, तो कुछ लोग उन्हें अव्यावहारिक भी । उनका चिन्तन है कि युग के चाल प्रवाह में इन नियमों को पाला जाना संभव नहीं है। आज के युग की परिस्थितियां ऐसी हैं कि व्यक्ति सत्य और प्रामाणिकता से अपना काम नहीं चला सकता । सत्य एवं प्रामाणिकता की टेक भी रखे और युग के साथ भी चले- ये दोनों बातें साथ-साथ नहीं चल सकतीं। इन दोनों बातों को साथ-साथ चलाने का मतलब है--- दो घोड़ों की सवारी, जिसका कि परिणाम कभी भी अच्छा नहीं
गुणों का स्रोत
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