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गुणस्थान-कर्म-विशुद्धि की तरतमता के अनुरूप प्राणी के आध्यात्मिक
विकास की विभिन्न भूमिकाएं स्तर गुणस्थान हैं। इन्हें जीवस्थान भी कहते हैं। गुणस्थान चौदह हैं-१. मिथ्यादृष्टि २. सास्वादनसम्यग्दृष्टि ३. मिश्रदृष्टि ४. अविरतसम्यग्दृष्टि ५. देशविरत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. निवृत्तिबादर ९. अनिवृत्तिबादर १०. सूक्ष्मसंपराय ११. उपशान्तमोह १२. क्षीण
मोह १३. सयोगीकेवली १४. अयोगीकेवली ।। (सम्यक्) चारित्र-महाव्रत (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह)
आदि धर्मों का आचरण करना (सम्यक् ) चारित्र है। चारित्र के पांच प्रकार हैं-१. सामायिक २. छेदोपस्थाप्य ३. परिहारविशुद्धि ४. सूक्ष्मसंपराय ५. यथाख्यात। ___ सामायिक और छेदोपस्थाप्य चारित्र छठे से नवें गुणस्थान तक होते हैं । परिहारविशुद्धि चारित्र छठे और सातवें गुणस्थान में होता है । सूक्ष्म संपराय चारित्र की प्राप्ति दसवें गुणस्थान में होती है । यथाख्यात चारित्र ग्यारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक होता है ।
प्रथम पांच गुणस्थानों में कोई चारित्र नहीं होता । देखें-गुणस्थान। चारित्रमोहनीय (कर्म)-मोहनीय कर्म की वह अवस्था, जो आत्मा के
चारित्र गुण को विकृत करती है। (सम्यक्) ज्ञान-यथार्थबोध को (सम्यक् ) ज्ञान कहा जाता है। मति, श्रुत,
अवधि, मनःपर्याय और केवल--ये उसके पांच भेद हैं। तप-देखें-निर्जरा । तपस्या-देखें-निर्जरा। तीर्थकर
० धर्मचक्र प्रवर्तक। ० साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका--इन चार तीथों के
संस्थापक । ० चार घनघाती कर्मों का क्षय कर जो केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि गुणों को प्राप्त कर लेते हैं तथा आठ प्रातिहार्य आदि विशिष्ट उपलब्धियों के धारक होते हैं, वे ही अर्हत्, अरहंत, जिन या तीर्थंकर कहलाते हैं। ० नमस्कार महामंत्र का प्रथम पद इनके लिए प्रयुक्त है। जीवन की
समाप्ति पर वे सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाते हैं। ० प्रत्येक उत्सर्पिणी या अवसर्पिणी में भरतक्षेत्र तथा ऐरावतक्षेत्र में
चौबीस तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं । यह चौबीसी कहलाती है।
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मानवता मुसकाए
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