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________________ वास्तविक समस्याएं और तनाव ३१३ नहीं है, क्योंकि जाने के एक नहीं, नौ द्वार खुले हैं। संयोग और वियोग दो नहीं हैं। ये दोनों एक ही कपड़े के दो छोर हैं। एक छोर है-संयोग और दूसरा छोर है-वियोग। दोनों को कभी पृथक् नहीं किया जा सकता। यदि इस सचाई को समझा होता, तो आदमी संयोग होने पर सुखी और वियोग होने पर दुःखी नहीं होता। प्रेक्षा : अनुप्रेक्षा प्रेक्षा के साथ अनुप्रेक्षा बहुत जरूरी है। इसलिए कि मूर्छा छूटे, भ्रान्तियां टूटे। हमने अनेक प्रकार की मूर्छाएं और भ्रान्तियां पाल रखी हैं। हमें पदार्थ के चले जाने का कष्ट नहीं होता। हमें अपनी भ्रान्ति के टूटने का कष्ट होता है। जब यह मान लिया-'यह मेरा है' और जब यह छूट जाता है, तब यह भ्रान्ति टूटती है कि जिसे मैंने अपना मान रखा था, वह तो चला गया, मेरा नहीं रहा। वह भ्रान्ति का टूटना कष्ट देता है, कचोटता है। इसके स्थान पर यदि माना जाए कि मेरा कोई नहीं है, तो उसके चले जाने पर भी कोई कष्ट नहीं होगा। इस सचाई को गहराई से पकड़ें कि पदार्थ के आने-जाने से सुख-दुःख नहीं होता। वह होता है पदार्थ को अपना मानने या न मानने से। प्रथम श्रवण में यह बात विपरीत-सी लगती है, पर है यह सचाई। आदमी पदार्थ और व्यक्ति से अपने आपको इतना अभिन्न मान लेता है कि उसके मन में एक भ्रान्ति पनप जाती है। जब अभिन्नता खंडित होती है तब साथ-साथ भ्रान्ति भी खंडित होती है। भ्रान्ति का खंडित होना दुःख का कारण बनता है। हम भ्रान्तियों को न पालें। भ्रान्तियों का विघटन अनुप्रेक्षा का प्रयोजन है-भ्रान्तियों को खंडित करना। मनुष्य जितनी ज्यादा भ्रान्तियां पालता है उतना ही अधिक वह दुःखी बनता है। प्रेक्षा-ध्यान के द्वारा हम सचाइयों को जानें और अनुप्रेक्षा के अभ्यास से उन भ्रान्तियों को तोड़ें। पहली अनुप्रेक्षा है-अनित्य अनुप्रेक्षा। कोई भी संयोग या संबंध शाश्वत नहीं है। युगल है। कुछ शाश्वत है, कुछ अशाश्वत । कुछ नित्य है, कुछ अनित्य। दोनों साथ-साथ चलते हैं। संसार में कुछ भी शाश्वत नहीं है, एक भी संयोग ऐसा नहीं है जो नित्य हो। किन्तु मूर्छा के कारण संयोग को नित्य मान लिया जाता है। अनित्य को नित्य मान लिया जाता है। दुःख का बीजारोपण यहीं से शुरू हो जाता है। जब उस पदार्थ या व्यक्ति से विसंबंध होता है तब दुःख उभर आता है। क्या यह पदार्थ या व्यक्ति के वियोग से उत्पन्न दुःख है? नहीं, यह अनित्य को नित्य मानने की भ्रान्ति के टूटने का दुःख है। मनुष्य का स्वभाव ही है कि वह पहले झूठी मान्यताओं का महल खड़ा करता है और उनके टूटने पर दुःखी होता है। प्रेक्षा-ध्यान का अभ्यास करने वाला व्यक्ति प्रारंभ से ही सावधान हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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