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________________ ३०४ अप्पाणं सरणं गच्छामि है । पदार्थ का वियोग होता है, तब दुःख होता है। बिजली थी तब सुख का अनुभव होता था। बिजली चली गई तब दुःख का अनुभव होने लगा । सुख बिजली के रहने से नहीं हुआ । दुःख बिजली के जाने से नहीं हुआ । वस्तु के जाने से दुःख नहीं होता । दुःख तब होता है जब हमें पता चलता है कि वस्तु चली गई । व्यक्ति को पता नहीं है कि व्यापार में घाटा है, तब उसे दुःख नहीं होता । दुःख तब होता है जब उसे पता लग जाता है कि घाटा हुआ है। नुकसान होने से कोई दुःख नहीं होता और लाभ होने से कोई सुख नहीं होता । जब दोनों अज्ञात होते हैं तब कुछ नहीं होता। जब वे ज्ञात होते हैं तब सुख-दुःख के कारण बनते हैं। यदि वास्तव में घाटा होने से ही कोई दुःख हो तब तो घाटा लगने की घटना के साथ-साथ ही दुःख हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता है । कोई प्रिय व्यक्ति चल बसा। चार दिन तक समाचार नहीं मिले। कोई दुःख नहीं हुआ। समाचार मिलते ही दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। अतः यह निश्चित है कि घटना घटित होते ही सुख-दुःख नहीं होता। सुख-दुःख तब होता है जबकि उसका पता चले। कुछ आगे चलें । पता लगने से भी सुख-दुःख नहीं होता । सुख-दुःख तब होता है जब हमारी मूर्च्छा होती है। मूर्च्छा होती है तब संयोग होने पर सुख और वियोग होने पर दुःख होता है। जब मूर्च्छा नहीं होती तब चाहे वियोग हो या संयोग, दुःख भी नहीं होता और सुख भी नहीं होता । घटना घटती है। आदमी जान लेता है। केवल घटना - बोध होता है । पर सुख-दुःख नहीं होता । आस्था का निर्माण ध्यान-साधना के द्वारा हम आस्था की स्थिति का निर्माण करना चाहते हैं । जो घटनाएं घटित होने वाली हैं वे अवश्य घटेंगी। उनका हमें बोध भी होगा, किन्तु उनके साथ न सुख आए और न दुःख आए, यह अपेक्षित है। हम केवल जानते रहें, कर्तव्य का पालन करते रहें, चिन्तन करते रहें, चिन्तित न बनें । संताप को इकट्ठा न करें। संतप्त न बनें । आचार्यश्री रायपुर में थे। विरोध में विद्यार्थियों का एक जुलूस आ रहा था। लोग घबराये हुये थे। उन्होंने कहा - 'उपद्रव होगा ।' आचार्यश्री बोले - 'चिन्ता मत करो, चिन्तन करो।' यह है एक आस्था का निर्माण । सामान्यतः होता यह है कि सामने थोड़ी-सी प्रतिकूल स्थिति आती है और आदमी चिन्ताओं से ग्रस्त बन जाता है। उन चिन्ताओं के कारण वह उपाय खोजना ही बन्द कर देता है। उपाय के अभाव में परिस्थिति और अधिक जटिल बन जाती है। अब कष्टों का मार्ग ही उसके लिए उद्घाटित रहता है । इससे बचने का एकमात्र उपाय है- परिस्थिति के आने पर चिन्ता न करना किन्तु चिन्तन करना, व्यथा न करना किन्तु संवेदन करना। इनके पीछे अलग-अलग प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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