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समाधि के सोपान १२५
जीता है, उसे इन्द्रिय, मन और बुद्धि को कोसने का कोई अधिकार ही नहीं है और उनके उपभोग में सार नहीं है, यह कहना शत-प्रतिशत झूठ है । इन्हें असार कहने का अधिकार तब प्राप्त होता है जब साधक इन तीनों चेतनाओं से ऊपर उठकर अनुभव की चेतना में जीने लगता है ।
अनुभव की चेतना समाधि का पहला सोपान है। यहां पहुंचने पर प्रियता और अप्रियता का संवेदन समाप्त हो जाता है या कम हो जाता है । उस स्थिति में जीवन के सारे व्यवहार, प्रवृत्तियां और कर्म प्रतिक्रियाशून्य हो जाते हैं । काम चलता है, पर प्रतिक्रिया नहीं होती । पैर चलता है, पर उसका पदचिह्न नहीं बनता । रोटी खाते हैं, शेष कुछ नहीं बचता। काम हो और शेष कुछ भी न रहे, वह है प्रतिक्रियाशून्य जीवन । यही दुःख-चक्र को तोड़ने वाला है। यह तब उपलब्ध होता है जब व्यक्ति चौथी मंजिल पर आरोहण कर लेता है । धर्म की सारी व्याख्या, परिभाषा और धर्म का सारा प्रतिपादन अनुभव की चेतना में प्रवेश कर दिया गया है। धर्म का बोध और धर्म की समझ उन्हीं लोगों को हुई है जिन्होंने अपना पैर अनुभव की चेतना मे जमा दिया। यदि ऐसा नहीं होता तो वे न धर्म की बात कहने का अधिकार पाते और न इन्द्रिय-विषयों को असार कहने का अधिकार पाते। यह तभी घटित होता है जब समाधि का पहला सोपान हमारे पैरों के नीचे आ जाता है।
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