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________________ समाधि के मूल सूत्र १०१ है। आनन्द, शक्ति और चेतना या ज्ञान-यह मेरा स्वभाव है। दुःख, अशक्ति और अज्ञान मेरा स्वभाव नहीं है। मैं दुःख का, दुर्बलता का और अज्ञान का या अंधकार का अनुभव करता हूं-यह मेरा अपना भाव नहीं है, आरोपित या थोपा हुआ भाव है। __ अज्ञान आरोपित है, स्वभाव नहीं है। व्यक्ति जैसे-जैसे आत्मज्ञान को उपलब्ध होता है, अपने अस्तित्व के प्रति पूर्ण जागरूक हो जाता है, उसे इस सचाई का स्पष्ट भान हो जाता है कि अज्ञान मेरा धर्म नहीं है, आरोपित धर्म है। जब तक व्यक्ति सचाई को नहीं जानता, तब तक उसका दर्शन मिथ्या होता है। जब वह सचाई को जान जाता है, तब उसका दर्शन सम्यक् होने लग जाता है। वह सम्यक् दर्शन बन जाता है। इसमें यथार्थ दर्शन होता है। मिथ्यादर्शन में होता कुछ है और जाना कुछ और ही जाता है। ___एक वैज्ञानिक था। उसका नौकर अनपढ़ था। वैज्ञानिक अन्तरिक्ष के ग्रहों, नक्षत्रों और तारों की खोज करता था। वह कभी-कभी रात-भर तारों को दूरवीक्षण यंत्र से देखता रहता। उनका अध्ययन करता। नौकर भी कभी-कभी रात-भर बैठा रहता। एक दिन वैज्ञानिक तारों के अध्ययन में बहुत व्यस्त था। अचानक एक तारा टूटा। नौकर ने देख लिया। वह उछला और जोर से चिल्ला उठा-मेरा स्वामी कितना अचूक निशानेबाज है कि तारे को भी टूटना पड़ा। अज्ञान या मिथ्यादर्शन के कारण होता कुछ है और आदमी पकड़ता कुछ और है, जानता कुछ और है। जब तक दृष्टि सम्यक् नहीं होती, समाधि की बात व्यर्थ है। समाधि के लिए ज्ञान, शक्ति, प्राणवत्ता और आनन्द का होना अनिवार्य है। सम्यक्-दर्शन होने पर इस सचाई का अनुभव हो जाता है कि सत्य और आनन्द मेरा स्वभाव है, चेतना और ज्ञान मेरा स्वभाव है। उस स्थिति में भ्रांतियां और दुःख टूटने शुरू हो जाते हैं और असमाधि के सारे तत्त्व हटने लग जाते हैं। समाधि का आधार दृढ़ बनता जाता है। समाधि का तीसरा आधार है-आत्मा की स्वतन्त्रता। इस अवस्था में व्यक्ति मानने लगता है कि मैं परिस्थिति से संचालित यंत्र नहीं हूं। मेरा अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। मेरा अपना स्वतन्त्र कर्तृत्व है। जब व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता का बोध होता है और मैं परिस्थिति का दास नहीं हूं'-इसका स्पष्ट भान हो जाता है तब उसमें हजार गुना साहस जागजाता है। उसकी कर्मजाशक्ति इतनी विकसित हो जाती है कि वह असंभव कार्य करने के लिए भी तैयार हो जाता है। जब तक अपनी स्वतंत्रता का बोध नहीं होता, तब तक मन की दुर्बलता, मन का भय नष्ट नहीं होता। वह सदा डरा-डरा रहता है और लक्ष्य की ओर कदम बढ़ा नहीं सकता। वह समाधि की दिशा में कभी प्रस्थान नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003126
Book TitleAppanam Saranam Gacchhami
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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