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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार
२३५ आधि-दैविक शक्ति है। यमुना भक्ति का प्रतीक है। कालियनाग इन्द्रियाध्यास या भोगस्वरूप है । भक्ति में इन्द्रियाध्यास विघ्न स्वरूप है । राग-द्वेषविकारादि ही विषय हैं । जब इन्द्रिय वासना रूप विष से युक्त रहती है, तब तक भक्ति नहीं होती है । इन्द्रियाध्यास के दमन होते ही भक्ति शुद्ध हो जाती
हेमन्त के आगमन पर सभी गोपियां श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति के लिए भगवती कात्यायनी की आराधना करती हैं । यमुना के तट पर बालु से भगवती कात्यायनी का प्रतीक बनाकर गन्ध माला, धूप-दीप, बलि आदि के द्वारा अर्चना करती है।
__ वेणुगीत नादब्रह्म की उपासना है "वश्च इश्च ब्रह्मानंद विषयानंदौ तौ अणू यस्मात्" ब्रह्मानंद विषयानंद से श्रेष्ठ आनंद का प्रतिपादक वेणु है और उसका गीत वेणु गीत है।
गो अर्थात् इन्द्रियों का संवर्द्धन अथवा पुष्टि गोवर्द्धन है। इन्द्रियों के पुष्ट होने पर भक्ति रस की उत्पत्ति होती है। भक्ति के उत्पन्न होते ही षड्रस रूप वरुण देव का पराभव हो जाता है । षड्रस के पराभव के बाद जीव शुद्ध हो जाता है।
वासना, अज्ञान एवं बाह्य आवरण का प्रतीक विशेष का नाम चीर है। जिस प्रकार वस्त्र शरीर को आच्छादित कर देता है उसी प्रकार वासना और अज्ञान आत्मा को ढक देते हैं। चीरहरण लीला वासना विनाश लीला का प्रतीक है । वासना और अज्ञान के विनाश होते ही जीव और शिव का मिलन हो जाता है।
परब्रह्मपरमेश्वर श्रीकृष्ण की योगात्मक क्रिया विशेष का नाम रासलीला है, जिसके द्वारा काम-जय कर जीव शिव को प्राप्त कर लेता है। रासलीला मदन-विजय लीला है
ब्रह्मादिजय संरूढ दर्प कन्दर्प दर्पहा ।
जयति श्रीपतिर्योपोरासमण्डलमण्डितः ॥ "रस्यते अस्वाद्यते इति रस, रसो वै सः" इस प्रकार उपनिषदों में रस शब्द का अर्थ परब्रह्मपरमेश्वर बताया गया है । रस शब्द से "तस्येदम्' सूत्र में अण् प्रत्यय करने पर रास शब्द की निष्पत्ति होती है। परब्रह्मपरमेश्वर का औपाधिक प्रादुर्भाव रास का शब्दार्थ है। अर्थात् सर्वेश्वर कृष्ण । ली लयते ला लायते लीयते गृहणातीति वा अथवा लियं लातीति लीला तन्मयता तद्रूपता रूप क्रिया विशेष अथवा जिसके द्वारा तन्मयत्व या ताद्रूप्य प्राप्त किया जा सके वह क्रिया विशेष । रासलीला पूर्णावतार श्रीकृष्ण पद प्रापण-समर्थ क्रिया विशेष का प्रतीक है । रासलीला के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण व्रजाङ्गणाओं किंवा समस्त जीवों को परमानंद में ले जाते हैं अथवा स्थापित
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