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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अलंकार
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सांकेतिक शब्द प्रतीक के अन्तर्गत आते हैं। डॉ० नागेन्द्र ने प्रतीक को रूढ़ उपमान और अचल बिम्ब माना है । "
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अमूर्त
प्रतीक कहते हैं । लेकिन
जो अप्रत्यक्ष रहती है, उसे को मूर्त रूप दिया जाता है, कर देने की विशिष्टता है पूर्ण तथ्य का द्योतक मात्र होता है, उसमें पूर्ण नहीं होती है ।
भावों की मूर्त अभिव्यक्ति रूपक में भी अमूर्त भावों मूर्त एवं साकार प्रतीक का रूप
तथ्य की अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष
वहां जो अमूर्त को
वह प्रतीक में नहीं है ।
विविधाचार्यों द्वारा निरूपित प्रतीक शब्द की परिभाषा एवं व्युत्पत्तियों से स्पष्ट है कि प्रतीक केवल द्योतक होता है। किसी पदार्थ की अप्रत्यक्ष प्रतीति प्रतीक है। जैसे लिङ्ग शिव का चक्रपाणि विष्णु का, लम्बोदर गणेश का, वज्र इन्द्र का, भग पार्वती का और सिंह शक्ति "दुर्गा" का प्रतीक माना जाता है । सगुणोपासक भक्त उपास्य की मूर्ति बनाकर उपासना करते हैं । यद्यपि मूर्ति में परमेश्वर का पूर्ण दर्शन नहीं होता तथापि वह मूर्ति भक्तहृदय में परमेश्वर विषयक रति अवश्य उत्पन्न कर देती है।
श्रीमद्भागवत की संपूर्ण कथा ही प्रतीकात्मक है । विभिन्न प्रकार के अमूर्त तथ्यों का मूर्त चित्रण किया गया है। दर्शन भक्ति एवं ज्ञान के गूढ़ रहस्यों को प्रतीक के माध्यम से भगवान् वेदव्यास ने निरूपित किया है । लोक कथाओं के माध्यम से विभिन्न प्रकार के तथ्यों को उजागर किया गया है । उपाख्यान, भक्ति प्रसंग आदि सब प्रतीक रूप में निरूपित है । चतुर्थ स्कन्ध में पुरञ्चनोपाख्यान है । इस आख्यान का पुरंजन जीवमात्र का प्रतीक है । " पुरं जनयतीति पुरंजन" अर्थात् जो शरीर को उत्पन्न करता है । वह वासना के द्वारा एक पाद, द्विपाद, चतुर्पाद एवं बहुपाद युक्त शरीर को धारण करता है । पुरंजन जीव का "अविज्ञात" नामक सखा परमेश्वर ही है, क्योंकि विभिन्न प्रकार के नाम, रूप, गुणों के द्वारा उसे नहीं जाना जा सकता । नवद्वारात्मिका पुरी ही मानवीय शरीर है। बुद्धि ही पुरंजनी नामक कन्या है । इन्द्रियगण उस जीव विशेष के सखा हैं शब्दादि विषय पांचालदेश हैं, जिसके अन्तर्गत नवद्वारात्मिका नगरी अवस्थित
।
मन ही महाबली योद्धा है,
है ।
वृत्रासुरोपाख्यान अवलोकनीय है । त्रासदायका बहिर्मुखी वृत्ति का का प्रतीक है - वृत्रासुर । वृत्ति की बहिर्मुखता त्रासदायक है, अतएव ज्ञान का
१. डॉ० नागेन्द्र - काव्य बिम्ब,
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