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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
निर्धनों के परम धन होने से अकिंचनवित्त, आत्मा में रमण करने के कारण आत्माराम विशेषण का प्रयोग किया गया है। इसी स्तुति के ३२ वें श्लोक में "पुण्यलोक" विशेषण राजा यदु के लिए प्रयुक्त हुआ है, क्योंकि राजा यदु पवित्र कीति से युक्त थे।
श्रीशुककृत स्तुति में परिकर का सौन्दर्य दर्शनीय हैश्रियःपतिर्यज्ञपतिः प्रजापतिधियां पतिर्लोकपतिर्धरापतिः । पतिर्गतिश्चान्धकवृष्णिसात्वतां प्रसीदतां मे भगवान सतां पतिः ॥
समस्त संपत्तियों की स्वामिनी लक्ष्मीजी के पति होने से "श्रियःपति" यज्ञ का भोक्ता एवं फलदाता होने से "यज्ञपति", प्रजा के रक्षक होने से "लोकपति' एवं 'धरापति" आदि साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग भगवान् विष्णु के लिए किया गया है। षष्ठ स्कन्ध के नारायणकवच का सम्पूर्ण श्लोक परिकर अलंकार का उत्कृष्ट उदाहरण है। जब गजेन्द्र संकट में फंसकर भगवान् की स्तुति करने लगता है तो वह भगवान् के अनेक साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग करता है ----
ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम् ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥
यहां पर पुरुष, आदिबीज, तथा परेश इन तीन साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग प्रभु के लिए किया गया है। इसी स्तुति में भगवान के लिए ब्रह्म, अनन्त, अरूप, आत्मप्रदीप, साक्षी, विदूर, कैवल्यनाथ, शान्त, ज्ञानघन, क्षेत्रज्ञ, सर्वाध्यक्ष, स्वयंप्रकाश, अपवर्ग एवं ज्ञानात्मन् आदि साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग किया गया है । दसवें स्कन्ध के गर्भस्तुति में भगवान् को सत्यव्रतादि विशेषणों से विभूषित किया गया है।
इस प्रकार भागवतकार ने परिकर का प्रयोग भगवान के गुणों के वर्णनार्थ किया है । श्रीमद्भागवत की प्रत्येक स्तुति में परिकर अलंकार के उदाहरण मिल जाते हैं। अर्थापति अलंकार
दर्शन में प्रतिपादित अर्थापत्ति का स्वरूप ही अलंकार के रूप में स्वीकृत है। रुय्यक, विश्वनाथ, अप्पयदीक्षित आदि ने “दण्डापूपन्याय'' से अर्थ की सिद्धि में अर्थापत्ति अलंकार माना है। दण्डापूपन्याय का तात्पर्य यह है कि चहे के द्वारा दण्ड के हरण का कथन होने से दण्ड में लगे अपूप का हरण भी स्वत: प्रमाणित हो जाता है। इसी प्रकार एक अर्थ का कथन जहां १. श्रीमद्भागवत २.४.२० २. तत्रैव ८.३.२ ३. विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०.८३
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