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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो शिखरों पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा हो।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अनेक भावपूर्ण उत्प्रेक्षाओं का प्रयोग किया गया है। इससे न केवल भाषा-शैली में चारुता आती है बल्कि भावाभिव्यंजना में अद्भुत सम्प्रेषणीयता का संचार होता है । अनेक स्थलों पर मनोरम प्रसंगों को उत्प्रेक्षाओं के द्वारा व्यक्त किया गया है । काव्यलिङ्गालंकार
___ काव्यलिङ्गालंकार कार्य-कारण सम्बन्ध पर आधारित अलंकार है । सर्वप्रथम उद्भट ने स्वतन्त्र रूप से कायलिंग का स्वरूप विवेचन किया था। उनके अनुसार एक वस्तु से अन्य का स्मरण या अनुभव उत्पन्न कराया जाय उसे काव्यलिंग कहते हैं । “काव्याभिमतं लिङ्गम्" ही काव्यलिंग है । यहां लिंग का अर्थ हेतु है । इस प्रकार कवि द्वारा कल्पित अर्थ के उपपादन के लिए हेतु-कथन ही कायलिंग अलंकार है। मम्मट के अनुसार काव्यलिंग अलंकार वह अलंकार है जहां वाक्यार्थ या पदार्थ के रूप में किसी अनुपपन्न अर्थ का उपपादक हेतु कहा जाता है। यह हेतु-कथन तर्कशास्त्र से नितांत भिन्न है और चमत्कारोत्पादक होता है । काव्यलिंग को ही हेत्वलंकार तथा काव्य हेतु भी कहा जाता है। रुय्यक, विश्वनाथ आदि आचार्य भी मम्मट मत के ही पोषक हैं। जहां हेतु सम्पूर्ण वाक्यार्थ से अथवा पद के अर्थ से बोध कराया जाए वहां कालिग अलंकार होता है ।
यह अलंकार तर्क एवं न्यायमूलक है। श्रीमद्भागवतकार ने धर्म, दर्शन, ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि के तथ्यों को काव्यमयी भाषा में आस्तिक जनता को समझाने के लिए काव्यलिंग अलंकार का प्रयोग किया है। इस अलंकार के प्रयोग से श्रीमद्भागवत की भाषा में चारुता का समावेश हो जाता है । स्तुतियों में भक्त अपने प्रियतम के गुणों का गायन करते समय इस अलंकार का प्रयोग करता है। श्रीलगोस्वामी शुकदेव कृत भगवत्स्तुति का एक श्लोक द्रष्टव्य है
प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती वितन्वताजस्य सती स्मृति हृदि । स्वलक्षणा प्रादुरभूत् किलास्यतः स मे ऋषीणामृषभः प्रसीदताम् ॥
यहां पर ब्रह्मा के हृदय में स्मृति जागरण रूप कार्य के लिए, ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को भगवान के द्वारा प्रेरित किया जाना रूप कारण १. उद्भट, काव्यलंकारसार ६.१४ २. मम्मट, काव्य प्रकाश १०.११४ ३. रुय्यक, अलंकार सूत्र ५७ तथा विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०.८१ ४. श्रीमद्भागवत २.४.२२
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