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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना १६३
जब गजेन्द्र सब तरह से थक जाता है अन्त में स्वयं प्रकाश, स्वयं सिद्ध, सबके मूल कारण उस प्रभु को पुकार उठता है--
यः स्वात्मनीवं निजमाययापितं क्वचिद् विभातं क्वच तत् तिरोहितम् । अविद्धदृक् साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ॥
जिनके परममंगलमय स्वरूप दर्शन करने के लिए महात्मागण संसार की समस्त आसक्तियों का परित्याग कर देते हैं और वन में जाकर अखंड ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन किया करते हैं तथा अपने आत्मा को सबके हृदय में विराजमान देखकर स्वाभाविक रूप से सबकी भलाई करते हैं वे ही मुनियों के परममति भगवान हमारी गति हैं
दिदक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः । चरन्त्यलोकव्रतमवणं वने भूतात्मभूताः सुहृदयः स मे गतिः॥
उपर्युक्त श्लोक में वैदर्भी का विलास अत्यन्त हृदयावर्जक है । छन्द विधान
काव्य में लयात्मकता एवं गेयता के लिए मनीषीयों ने छन्दों को अनिवार्य तत्त्व माना है । श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में अनेक प्रकार के छन्दों का प्रयोग प्राप्त होता है । इस प्रसंग का विस्तृत विवेचन सप्तम अध्याय में उपन्यस्त है। चित्रात्मकता
उत्तम काव्य में व्यंजना द्वारा या काव्य श्रवण से सामाजिक या रसिक के सामने वर्णनीय का चित्र या छाया स्पष्ट हो जाती है। भागवतीय स्तुतियों में चित्रात्मकता का दर्शन सर्वत्र होता है। गंगापुत्र भीष्म श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुये कहते हैं --
शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायितो मे। प्रसभमभिससार मद्वधार्थे स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥
उपर्युक्त श्लोक में महाभारत युद्ध में अर्जुनसारथि वीरवर श्रीकृष्ण का भयंकर रूप स्पष्ट दृष्टि-गम्य होता है। भगवान् नृसिंह की भयंकरता से त्रिलोकी भयभीत हो रहा है। बालक प्रह्लाद अपने उपास्य के चरणों में सर्वात्मना समर्पित होकर अभय हो जाता है। उनकी भयंकरता का दृश्य का वर्णन इस प्रकार से करता है१. श्रीमद्भागवत ८.३४ २ तत्रैव ८.३.७ ३. तत्रैव १.९.३८
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