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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना १६१ कंशकारागार में सम्पूर्ण देव ऋषि आदि उपस्थित होकर भगवान् की श्रुतिमधुर शब्दों में स्तुति करते हैं ----
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना ॥
उपर्युक्त श्लोक में ट वर्गीय वर्गों का अभाव है, पद लघु समासांत और सानुस्वार हैं । कोमल कांतपदावली होने के कारण यहां माधुर्यगुण है । अन्य उदाहरण -
नमः पङ्कजनाभाय नमः पंकजमालिने । नमः पङ्कज नेत्राय नमस्ते पङ्कजाङघ्रये ॥
यहां देव विषयक रति का प्रतिपादन है। कुन्ती भगवान् से उपकृत होकर स्तुति कर रही है-हे कमलनाभ ! आपको नमस्कार है।
माधुर्य गुण के अतिरिक्त स्तुतियों में प्रसाद और ओज गुण भी पाये जाते हैं । जो भक्त ज्ञानी एवं तत्त्वदर्शी हैं उनकी भाषा ओजगुण गुम्फित है। प्रसाद गुण का तो सर्वत्र साम्राज्य ही पाया जाता है। श्रीकृष्ण द्वारा परावर्तित किए जाने पर गोपियों का हृदय द्रवित हो जाता है, आंखों से आंसुओं की निर्भरिणी निःसृत होने लगती है और पुकार उठती है-हे प्रभो हमने सब कुछ छोड़कर आपके चरण शरण ग्रहण की है --- मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशसं संत्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम् । भक्ता भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान् देवो यथादिपुरुषो भजते मुमुक्षुन् ।' २. शुद्ध संस्कार युक्त भाषा
श्रीमद्भागवत भक्ति का प्रतिपादक ग्रन्थ है, अतएव इसकी भाषा सरल, सुबोध, सुसंस्कृत और सहज ग्राह्य है । स्तुतियों के अतिरिक्त स्थलों में भाषा कहीं-कहीं दुरूह तथा दुर्बोध हो गयी है । तत्त्वदीप निबन्ध नामक भाष्य में श्रीमद्भागवत के तीन प्रकार के भाषाओं का निर्देश है समाधि, मतांतर तथा लौकिकी।
स्तुतियों में सर्वथा प्रसंगानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है। प्रजा जब भूख से संत्रस्त हो जाती है तब वह राजा पृथु की स्तुति इन्द्रवज्रा छन्द में करती है। इसमें स्तुतिगत भाषा की निम्नलिखित विशेषताएं दृष्टिगोचर होती है ---- मृदुता और कोमलता, भावानुरूप पदावली की योजना, भाव१. श्रीमद्भागवत १०।२।२६ २. तत्रैव शा२२ ३. तत्रैव १०।२९।३१ ४. तत्र व १।१७।९-११
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