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दाशंनिक एवं धार्मिक दृष्टियां आनंद से परिपूर्ण होकर चुप हो जाता है।' २. भवबंधन विनाशिका
भक्ति में भवबन्धन विनाश का अतुल सामर्थ्य निहित है। भजोआमर्दने से निष्पन्न भक्ति का अर्थ भी भववन्धन विनाशिका है। भक्ति से जन्म मृत्यु रूप सांसारिक प्रवाह की समाप्ति हो जाती है। भक्ति द्वारा भक्त रोगों से छुटकारा पा जाता है
यच्छद्धयानुतिष्ठन् वै मुच्यते सर्वतोभयात । भगवत्कथा, लीला गुण कीर्तनरूपा भक्ति अमृतस्वरूप है। विरहतप्त लोगों के लिए जीवनस्वरूप है। सारे पाप ताप को मिटाने वाली है, मंगलकारिणी एवं कल्याणदात्री है। गोपियों के शब्द, भजात्मिकाभक्ति का स्वरूप
तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुविगृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ निष्कामता
कुछ भक्तों की भक्ति में निष्काम भावना की प्रधानता रहती है तथा कुछ में केवल प्रभु चरणों की संगति एवं प्रभु में ही अपना स्वरूप विलय की मुख्यता होती है। भक्तराज अम्बरीष, नलकुबर मणिग्रीव, पृथु आदि की भक्ति प्रथम कोटि की है और पितामह भीष्म और वेद-स्तुति द्वितीय कोटि के उदाहरण हैं। भक्ति में भक्त की मानसिक वृत्तियां बाह्यविषयों से उपरत होकर आत्मस्थ हो जाती हैं। वह हृदयस्थित अपने उपास्य के चरणों में, एकांत भाव से मन वाणी और नेत्रों के द्वारा आराधना का पुष्प समर्पित करता रहता है। समर्पण
भक्ति में समर्पण भावना पराकाष्ठा पर पहुंची होती है । भक्त अपना सब कुछ यहां तक पाप-पुण्य को प्रभु चरणों में समर्पित कर प्रभु का ही हो जाता है। वह अपना घर-द्वार, धन-दौलत, पति-पुत्र का परित्याग कर प्रभ चरणों में ही प्रपन्न हो जाता है
१. श्रीमद्भागवत ११।२।३९-४० २. तत्रैव १.८.३६,१०.१६.३८,१०.२.३७ ३. तत्रैव १०.१६.५३ ४. तत्रैव १०.३१.९ ५. तत्रैव ८.३.१ ६. तत्रैव ५.१९.२३
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