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दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टियां
१३५ मेश्वर में परानुरक्ति भक्ति है । वह परम प्रेम स्वरूपा है। समुद्रोन्मुखी गंगा प्रवाह की तरह सर्वात्मा अखिलेश्वर में अविच्छिन्न गति ही भक्ति है। मन वाणी, शरीर एवं इन्द्रियों से सम्पादित कर्मो को नारायण में समर्पित कर देना भक्ति है । आनुकुल्येन कृष्णानुशीलन ही भक्ति है जैसे व्रजगोपरमणियां अनन्य भाव से कृष्णानुशीलन करती है। सभी विषयों का परित्याग कर भगवच्चरण शरणागति की प्रधानता वहां होती है।
कपिलाचार्य के मत में अहेतुकी भागवती भक्ति सिद्धि से भी श्रेष्ठ है । जिस प्रकार जठराग्नि निगीर्ण भोजन को अतिशीघ्र समाप्त कर देती है उसी प्रकार अनिमित्ता भागवती भक्ति कर्मसंस्कारजन्यकोशरूप लिङ्गशरीर का अतिशीघ्र विनाश कर देती है। वह मन की स्वाभाविक वृत्ति है।
ईश्वर में परम प्रेम ही भक्ति है। वह प्रेम अमृत स्वरूप, ज्ञानस्वरूप, गुणरहित, कामनारहित, प्रतिक्षणवर्धमान होता है। इसमें सब कुछ नारायणपादपङ्कज में समर्पित होता है। भक्त उसी के सुख में सुखी होता है । भक्तप्रवर प्रह्लाद भक्ति के नवधा स्वरूप का वर्णन करते हैं
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ इति पुंसापिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।
क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ भगवत्गुणकथाश्रवण, लीलाकीर्तन, विष्णु का स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन रूप नवधा भक्ति श्रीमद्भागवत में बहुश: स्थलों पर व्याख्यात है। भक्ति के साधन
__ अखिल ब्रह्मण्डनायक परमेश्वर भगवान् वासुदेव में अनपायिनी भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है । प्रह्लाद द्वारा वर्णित और नारद द्वारा प्रचारित किंवा अनुमोदित नवधा भक्ति ही भक्ति का साधन है । भगवान् गोकुलनाथ के नाम रूप गुण प्रभावादि का श्रवण, कीर्तन, स्मरण, भगवान् वासुदेव की चरण सेवा
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१. श्रीमद्भागवत ३.२९.११ २. तत्रैव ११.२.३६ ३. भक्तिरसामृत सिन्धु पूर्व विभाव ४. श्रीमद्भागवत १०.३१.१ ५. तत्रैव ३.२५.३२ ६. नारदभक्ति सूत्र ५४ ७. तत्रैव २४ ८. श्रीमद्भागवत ७.५.२३,२४
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