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दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टियां
अहं ब्रह्म परं धाम ब्रह्माहं परमं पदम् ।
परन्तु व्यवहार दृष्टि में भेद स्पष्ट परिलक्षित होता है । जीव मायापाशबद्ध है' भगवान् मायामुक्त । जीव भगरहित है भगवान् भगसम्पन्न | माया वशात् अविद्योपाधि युक्त होकर जीव देहेन्द्रियादि से निष्पन्न कम का भोग करता है और उसी को अपना यथार्थ स्वरूप मानकर आनन्दादि गुण से रहित होकर संसारदशा को प्राप्त हो जाता है । भगवान् माया को वैसे ही त्याग देते हैं जैसे सर्प केचुली को
त्वमुत जहासि तामहिरिव त्वचमात्तभगो महसि महीयसेऽष्टगुणितेऽपरिमेयभागः ॥
संसार [जगत् ]
श्रीमद्भागवतीय वेदस्तुति के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि यह परिदृश्यमान त्रिगुणात्मक जगत् केवल मनोजृम्भण मात्र है । यह जल बुद्बुद की तरह है विनाशवान है । संसार की सभी वस्तुएं सारहीन है— इति सदजानतां मिथुनतो रतये चरतां
सुखयति कोन्हि स्वविहते स्वनिरस्तभगे ||
जैसे रज्जु में अविद्या के कारण सर्प का भ्रम मिथ्या है उसी प्रकार सब वस्तु में अविद्या के संयोग से प्रतीत होने वाला नाम रूपात्मक जगत् भी मिथ्या है । यह परमार्थिक सत्य न होकर व्यावहारिक सत्य है ।"
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यह संसार उत्पत्ति के पहले न था और न प्रलय के बाद रहेगा, इससे यह सिद्ध होता है कि यह एकरस परमात्मा में मिथ्या ही प्रतीत होता रहा है । जैसे मिट्टी में घड़ा, लोहे में शस्त्र, सोने में कुण्डल आदि केवल नाम मात्र हैं, वास्तव में मिट्टी, लोहा, सोना ही है । इसे अविद्याग्रस्त जीव ही सत्य मानते हैं ।
वितथमनोविलासमृतमित्यवयन्त्यबुधाः ।
इस प्रकार जगत् मिथ्या है, आभास मात्र है अविद्या जनित है, त्रिगुणात्मक है, बंधनस्वरूप है ।
स्तुतियों में भक्ति
व्युत्पत्ति
भक्ति की सिद्धि दो प्रकार से की जा सकती है । भवादिगणीय भज
१. श्रीमद्भागवत १२.५.११
२. तत्रैव ३.३.१
३. तत्रैव १०.८७.३८
४. तत्रैव १०.८७.३४
५. तत्रैव १०.८७.३६ ६. तत्रैव १०.८७.३७
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