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दार्शनिक एवं धार्मिक दृष्टियां
१३१ अपना शुद्ध बुद्ध स्वरूप से भ्रष्ट होकर अपने से अलग पांच भौतिक शरीर में आत्मबुद्धि कर बैठता है । यह दैन्य एवं बन्धकरी है। जो आत्मा सबका स्वामी और सर्वथा मुक्त स्वरूप है, वह माया के द्वारा दीनता और बन्धन को प्राप्त हो जाता है । जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले पुरुष को अपना सिर कटना आदि व्यापार न होने पर भी अज्ञान के कारण सत्यवत् प्रतीत होता है उसी प्रकार इस जीव को बन्धनादि अपना न होने पर भी अज्ञानवशात् भास रहे हैं।
माया अहं बुद्धिकारिणी है । जीव इसी के द्वारा संसृतिचक्र में फंसकर अनन्त कष्ट को प्राप्त करता है।'
____ माया से ही जगत्प्रभु सृष्टि कार्य सम्पादित करते हैं। सृष्टि के आरम्भ में माया से गुणों की सृष्टि कर एवं उन्हें स्वीकार कर जगत् की रचना, पालन तथा संहार करते हैं ।
___ मायाविविधाभिधानयुक्ता-श्रीमद्भागवत में माया के विभिन्न पर्यायों का प्रयोग किया गया है। मोहिनी, “योगमाया" "आत्मशक्ति", "इच्छा", "मायादेवी", द्रष्टा की शक्ति,"अजा" विष्णु की माया, त्रिगुण, अव्यक्त,१२ नित्य,११ अविशेषप्रधान, अविद्या आदि पर्यायों से उसे अभिहित किया गया है।
इस प्रकार श्रीमद्भागवत की स्तुतियों में माया बन्धनभूता, सर्जनेच्छा एवं दुःखदा है । न सत् है न असत् है अर्थात् सदसत् से अनिवर्चनीय है । कार्य को देखकर ही उसके स्वरूप का अंदाज लगाया जा सकता है । इसी से संपूर्ण जगत् उत्पन्न होता है।
१. श्रीमद्भागवत ५.१९.१५ २. तत्रैव ३.७.९ ३. तत्रैव ३.७.९, १० ४. तत्रैव ३.३१.२० ५. तत्रैव १०.३७.१३, ४.७.२६, ८.३.४ ६. तत्र व ८.५.४३ ७. तत्रैव २.५.५ ८. तत्रैव ७.२.३९
९. तत्रैव २.३.३ १०. तत्रैव ३.५.२५ ११. तत्रैव ३.५.४९ १२. तत्रैव १०.८.४३ १३. तत्रैव ३.२६.१०
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