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श्रीमद्भागवत की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन
हेतु । राजा सत्यव्रत प्रभु की स्तुति करने लगे' प्रभो, संसार के जीवों का आत्मज्ञान अनादि अविद्या से ढक गया है । इसी कारण वे संसार के अनेकों कष्टों से पीड़ित रहते हैं । जब अनायास ही आपके अनुग्रह से वे आपकी शरण में पहुंच जाते हैं, तब आपको प्राप्त कर लेते हैं । इसलिए हमें बन्धन
छुड़ाकर वास्तविक मुक्ति देने वाले परम गुरु आप ही हैं । और अन्त में राजा सत्यव्रत सर्वतोभावेन अपने आपको प्रभु के चरणों में समर्पित कर हृदय ग्रन्थि छेदन भेदन की याचना करते हैं
तं त्वामहं देववरं वरेण्यं प्रपद्य ईशं प्रतिबोधनाय । छिन्ध्यर्थदीपैर्भगवन् वचोभिः ग्रन्थीन् हृदय्यान् विवृणु स्वमोकः ॥ २ नवम स्कंध की स्तुतियां
नवम स्कन्ध में दो स्तुतियां हैं-- अम्बरीषकृत सुर्शन चक्र स्तुति और अंशुमान् कृत कपिलस्तुति । जब सुदर्शन के कोप से दुर्वासा ऋषि को त्रिलोकीनाथ भी नहीं बचा पाये तब ऋषि भक्तअम्बरीष की ही शरण में गये । शरणागत की रक्षा के लिए भक्तराज ने सुदर्शन चक्र की स्तुति की
अम्बरीष की स्तुति से सुदर्शन चक्र शान्त हो जाता है और ऋषि दुर्वासा बच जाते हैं ।
सगर के पुत्र कपिल की क्रोधाग्नि में भस्म हो चुके थे । सगर की द्वितीय पत्नी केशिनी के पुत्र असमंजस के आत्मज अंशुमान् ऋषि आश्रम में जाकर महर्षि कपिल की स्तुति करने लगे
भगवन् ! आप अजन्मा ब्रह्मा जी से भी परे हैं, इसीलिए आपको वे प्रत्यक्ष नहीं देख पाते । हम लोग तो उनकी सृष्टि के अज्ञानी जीव हैं. भला आप को कैसे जान सकते हैं । स्तुति के अन्त में अंशुमान् कहते हैं - हे प्रभो, आपके दर्शन से मोह का दृढ़ पाश कट गया
अद्यः न सर्वभूतात्मन् कामकर्मेन्द्रियाशयः । महदृढ़छिन्नो भगवंस्तव दर्शनात् ॥
यह स्तुति निष्कामस्तुति है और अंशुमान् की भक्ति भंजात्मिका सिद्ध होती है । इस भक्ति से अंशुमान् का संसार बन्धन खत्म हो गया ।
१. श्रीमद्भागवत ८।२४।४६-५३
२. तत्रैव ८।२४।५३
३. तत्रैव - क्रमशः ९।५।३ - ११ एवं ९।८।२२-२७
४. तत्रैव ९।५।३
५. तत्रैव ९/८/२७
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