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भागवत की स्तुतियां : स्रोत, वर्गीकरण एवं वस्तु विश्लेषण
संकटो से रक्षा के लिए नारायण-वर्म का उपदेश दिया गया है। इसी कवच से रक्षित होकर देव इन्द्र ने अजेय राक्षसों की चतुरंगिणी सेना को अनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राज्य लक्ष्मी का उपभोग किया । देव पुरोहित विश्वरूप ने विजय के लिए देवराज को इस अमोघ कवच का उपदेश किया । इस कवच में ३१ श्लोक हैं जिसमें सब ओर से शरीर की रक्षा की कामना की गई है । भगवान् के विभिन्न अवतारों का ध्यान किया गया है। भगवान् श्रीहरि गरुड़जी की पीठ पर अपने चर कमल रखे हुए हैं। अणिमादि आठों सिद्धियां उनकी सेवा कर रही हैं । आठ हाथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश धारण किए हुए हैं। वे ही ऊंकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार से सब ओर से मेरी रक्षा करें।
वृत्रासुर से पराजित दीन-हीन भावना से युक्त देवगण अपने हृदय में विद्यमान सर्वशरण्य भगवान् नारायण की स्तुति करते हैं।' स्तुति से प्रसन्न नारायण देवों को प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं । प्रभ का प्रत्यक्ष दर्शन पाकर सभी देवता धन्य-धन्य हो पुनः स्तुति करने लगे। इस नवे अध्याय में देवों ने श्रीनारायण की दो वार स्तुति की है। प्रथम आर्त स्तुति है तो द्वितीय भगवदर्शन से उपकृत होकर की गई है । वृत्रासुर से पराजित देवगण हृदयस्थ सच्चिदानन्द से निवेदन करते हैं --वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथिवी-ये पांचों भूत, इससे बने हुए तीनों लोक, उनके अधिपति ब्रह्मादि तथा हम सब देवता जिस काल से डरकर उसे पूजा-सामग्री की भेंट दिया करते हैं, वही काल भगवान से भयभीत रहता है, इसलिए भगवान् ही हमारे रक्षक हैं।
भगवान् का दर्शन पाकर देवलोग अत्यन्त भाव विह्वल हो गये । साष्टांग प्रणाम कर धीरे-धीरे स्तुति करने लगे
नमस्ते यज्ञवीर्याय वयसे उत ते नमः । नमस्ते हस्तचक्राय नमः सुपुरुहूतये ॥ यत् ते गतीनां तिसृणामीशितुः परमं पदम् । नार्वाचीनो विसर्गस्य धातर्वेदितुमर्हति ॥ महाप्रास्थानिक वेला में राक्षसराज वृत्रासुर भगवान् गदाधर को
१. श्रीमद्भागवत ६८।४।३४ २. तत्र व ६।८।१२ ३. तत्र व ६।९।२१-२७ ४. तत्र व ६।९।३१-४५ ५. तत्र व ६।९।१२ ६. तत्र व ६।९।३१-३२
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