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________________ २४६ : सम्बोधि मेघः प्राह कथमात्मतुलावादः, भगवंस्तव सम्मतः । भिन्नानि सन्ति कर्माणि कृतानि प्राणिनामिह ॥४६॥ ४६. मेघ ने पूछा - भगवन् ! प्राणियों के कर्म भिन्न-भिन्न होते हैं । ऐसी स्थिति में आत्मतुलावाद - आत्मौपम्यवाद का सिद्धान्त आपको सम्मत क्यों है ? शुकदेव स्वयं में संदिग्ध थे कि उन्हें आत्मबोध हुआ है या नहीं। वे महाराज जनक के पास पहुंचे । जनक उस समय के बोधि प्राप्त व्यक्तियों में से एक थे । जनक ने पूछा - 'आपने मार्ग में आते हुए क्या देखा ? द्वार पर क्या देखा और यहां क्या देख रहे हैं ?' शुकदेव का एक ही उत्तर था - 'मिट्टी के खिलौने । ' जनक ने कहा - ' आप अप्राप्त को पा चुके हैं । भेद बाहर है, आकृतियों का है, चेतना में कोई भेद नहीं है । महावीर जिस शिखर से मेघ से बात कर रहे हैं, वह मेघ की बुद्धि का स्पर्श कैसे करे ? मेघ खड़ा है खाई में । उसे आत्मतुला का कोई अनुभव नहीं है । जो भेद ही देखता है और भेद में ही जीता है उसे अभेद का दर्शन कैसे हो ? जिन्होंने भी शिखर का स्पर्श किया है उन्होंने शिखर की बात की है ' सजा का हाल सुनाये, जजा की बात करे खुदा जिसे मिला हो, वह खुदा की बात करे ।' महावीर ने जो देखा उसका प्रतिपादन किया । वे जानते हैं - भिन्नता क्यों है ? लेकिन भिन्नता के पीछे खड़े उस अभिन्न से वे पूर्णतया परिचित हैं । इसलिए वे कहते हैं - प्रत्येक आत्मा स्वरूपतः एक है । स्वभाव में कोई अनेकत्व नहीं है । जिस दिन जो भी आत्मा स्वरूप को उपलब्ध होगी, उसे वही अनुभव होगा जो कि उसका धर्म – स्वभाव है । भिन्नता कर्मकृत है, सूक्ष्म शरीर ( कारण शरीर ) कृत है । इसका जिसे स्पष्टतया बोध हो जाता है, वह फिर भेद-कृत अवस्थाओं के कारण बड़ा-छोटा, नीच ऊंच, धनी - निर्धन आदि परिवर्तनों में उलझेगा नहीं और न उन्हें शाश्वत भी समझेगा । भगवान् प्राह वत्स ! तत्त्वं न विज्ञातं साम्प्रतं तन्मयः शृणु । समस्त्यात्मतुलावादः, सम्मतो मे Jain Education International For Private & Personal Use Only स्वरूपतः ॥ ५०॥ www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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