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________________ अध्याय २ : ४३. ४२. अधर्म से नए-नए असत् संस्कारों का संचय होता है । तत्त्वतः यही अधर्म का फल है । संस्कारान् विलयं नीत्वा, चित्वा तानन्तरात्मनि । क्रियामेतौ प्रकुवत, धर्माधर्मो निरंतरम् ॥४३॥ ४३. धर्म से असत् संस्कार नष्ट होते हैं और अधर्म से असत् संस्कारों का संचय होता है । धर्म और अधर्म इस प्रकार निरन्तर क्रियाशील रहते हैं । पुण्यपापे प्रजायेते, हेतुभूते प्रमुख्यतः । सुखदुःखानुभूत्योश्च सामग्रयां नैव निश्चितिः ॥४४॥ ४४. पुण्य और पाप मुख्यरूप से सुख और दुःख अनुभू में हेतभूत होते हैं, किन्तु वे हेतुभूत होते हैं ऐसा निश्चित नियम नहीं है । द्रव्यं क्षेत्रं तथा कालः, व्यवस्था मतिपौरुषे । एतानि हेतुतां यान्ति, पुण्यपापोदये ध्रुवम् ॥४५॥ ४५. पुण्य और पाप के उदय में द्रव्य, क्षेत्र, काल, व्यवस्था, बुद्धि और पौरुष हेतु बनते हैं । धार्मिको नार्थसंपन्नः, धनाढ्यः स्यादधार्मिकः ः । नेति धर्मस्य वैफल्यं, फलं तस्यात्मनि स्थितम् ॥४६॥ ४६. धार्मिक व्यक्ति दरिद्र है और अधार्मिक व्यक्ति धनाढ्य, इसमें धर्म की विफलता नहीं है । धर्म का फल आत्मा में ही निहित है । स्यादनावृतम् I अनावृतं भवेद् ज्ञानं, दर्शनं प्रस्फुरेत् सहजानन्दः, वीयं स्यादपराजितम् ॥ ४७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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