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________________ ४३८ : सम्बोधि लिए मिलन होता है। रात जा रही है और दिन का आवागमन हो रहा है, दिन जा रहा है और रात आ रही है-दोनों के मध्य का क्षण सन्ध्या कहलाता है। दिन का मध्याह्न और रात्रि का मध्य भाग भी संध्या कहलाता है। इसकी वैज्ञानिकता से साधक परिचित थे। वे जानते थे कि इस क्षण में चेतना शान्त होती है, मन शान्त होता है, इस क्षण किया गया संकल्प, भावना, विचार, अचेतन में प्रविष्ट हो जाता है, जो व्यक्ति को रूपान्तरित कर देता है, इसलिए 'सन्ध्या' में आत्मोपासना के अतिरिक्त अन्य समस्त कार्य अकरणीय । हैं ___ काल सम्बन्धित संध्या का प्रभाव भी मनुष्य जीवन पर पड़ता है। कोई भी प्राणी स्वतंत्र नहीं है । सब प्रकृति से संयुक्त हैं। सम्पूर्ण विश्व एक परिवार है। इसके साथ-साथ एक संध्या का दर्शन प्रत्येक शरीर में होता है। आत्मा साधक को उसका उपयोम करना सीखना है। वह संध्या दिन-रात में अनेक बार घटित होती है, जिसे हम सुषुम्ना के नाम से जानते हैं। शरीर में तीन प्रधान नाड़ियां हैं-ईडा-बायीं नासिका पिंगला .. दांई नासिका और दोनों के मध्य सुषुम्ना है। ईडा को चन्द्र, पिंगला को सूर्य स्वर कहते हैं । एक स्वर से दूसरे स्वर का उदय होता है तब श्वास कुछ क्षण सुषुम्ना में प्रवाहित होता है। यह दोनों का संधि-स्थल है। ईडा-पिंगला का सम्बन्ध शरीर से है और सुषुम्ना का सम्बन्ध आत्मा से है। ध्यान का उपयुक्त समय यही है । साधक के लिए संध्या-विज्ञान नितान्त स्पृहणीय है। सुषुम्ना में प्राणधारा का प्रवाह हुए बिना इष्ट-सिद्धि नहीं होती। इसे शून्य स्वर कहा है। इसमें किसी भी कार्य की सफलता नहीं होती, सिवाय योग, ध्यान, प्रार्थना आदि के । इसका समय भी निर्धारित किया है, किंतु वह पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति की दृष्टि से है । अस्वस्थ व्यक्ति का स्वर नियमित नहीं चलता। स्वर का विपरीत चलना कुछ न कुछ अनिष्ट की सूचना है। साधक को सुषुम्ना के संचालन में निष्णात होना है और उसकी प्रक्रिया को जानना है । उसका समय इस प्रकार हैदिन-६, ७/३०, १०/३०, १२, १/३०, ३, ४/३०, ६ । रात-७/३०, ६, १०/३०, १२, १/३०, ३, ४/३०, ६ । इसके अतिरिक्त सोने और जागरण का क्षण भी संध्या है। नींद शरीर पर उतरी नहीं है और जागरण गया नहीं है, इस क्षण को पकड़ने और उसके उपयोग में साधक कुशल बने । दृढ़ निष्ठापूर्वक अभ्यास किया जाये तो संभव है कुछ ही महीनों में साधक उसे पकड़ सकता है। संकल्प-सिद्धि और भावना-सिद्धि के लिए भी इसका उपयोग किया जाता हैं । इन क्षणों में किया गया संकल्प स्थायित्व को पकड़ता है, अचेतन में सहजतया प्रविष्ट हो जाता है, और जागते ही पहली स्मति उसकी होती है। संध्या के समय की यही सबसे बड़ी उपादेयता है । सुषुम्ना का जब भी, जैसे भी, समय आये उसे व्यर्थ न खोयें । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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