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________________ परिशिष्ट - १ : ४३५ कर्म - साधक को सब कठिनाइयों को यह समझ कर सहना चाहिए कि मैं अपने पूर्व जन्म के कुकर्म का फल भोग रहा हूं। उसे अपने भाग्य से सन्तुष्ट रहना चाहिए, चाहे सुख हो या दुःख, लाभ हो या हानि । उसको किसी वस्तु की तृष्णा नहीं करनी चाहिए । उसको धर्म (सत्य) का अनुसरण करना चाहिए।' एक इसी परम्परा के अन्य ध्यानी साधक ने अपने शिष्य को निम्नोक्त विधि के अनुसरण का निर्देश दिया है - 'शास्त्र के प्रवचन और अध्ययन को कुछ समय के लिए छोड़ो। कुछ दिन के लिए अपने कमरे में बन्द हो जाओ । गर्दन सीधी कर शांत होकर बैठो और अपने विचारों को एकाग्र करो। अच्छे-बुरे के द्वन्द्वात्मक तर्क को छोड़कर आन्तरिक संसार को देखो । ज्ञान उसके लिए 'प्रत्यात्मवेद्य' होना चाहिए । ध्यान और समत्व मंजिल है और ध्यान उसका मार्ग है। साधक का ध्येय होता है - शुद्ध आत्मा का अनुभव | आत्मा को आवृत करने वाले हैं -- राग और द्वेष | चित्त प्रतिक्षण इसके द्वारा प्रकम्पित रहता है । चेतना प्रकम्पनों के कारण परिलक्षित नहीं होती । ध्यान से साथ जो प्रतिक्रिया मुक्ति की बात जुड़ी है या कही जाती है। वह इसलिए कि प्रतिक्रिया प्रकम्पन है और प्रकंपन से हम ध्येय के सन्निकट नहीं पहुंच सकते । आगम की परिभाषा में प्रतिक्रिया मुक्ति के लिए शब्द है— समता । साधक समस्त अनुकूल और प्रतिकूल द्वन्द्वों में सतत समतावान् रहे, तटस्थ रहे। 'समयाए समणो होइ' - श्रमण समता से होता है । "जो समो सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु य । तस्स सामाइयं होइ, इ इ केवलिभासियं ॥" - 'आत्म द्रष्टा पुरुषों ने कहा है कि सामायिक उसी साधक के होती है जो त्रस, स्थावर, स्थूल और सूक्ष्म चराचर जगत् के प्रति सम रहता है ।' समता के अभाव में ध्यान-साधना अपना कोई प्रतिफल नहीं ला सकती । साधक को प्रारंभ में ही इस सत्य का बोध हो जाना चाहिए कि मेरी प्रत्येक क्रिया में समत्व प्रतिष्ठित रहे । बाहर से होने वाले आघातों के प्रति सतत जागरूक रहना और अपने मन को किंचिदपि आन्दोलित नहीं करना, ध्याता के लिए यह नितांत अपेक्षित है । इसलिए ध्यान में प्रतिष्ठित साधकों ने समता और ध्यान को भिन्न नहीं माना। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है'समत्वमवलम्ब्याथ, ध्यानं योगी समाश्रयेत् । बिना समत्वमारब्धे, ध्याने स्वात्मा विडम्बति ॥ ' - 'योगी समता का आलंबन लेकर ध्यान के पथ पर अग्रसर बने । समत्व के शुभारंभ के अभाव में वह ध्यान में बैठकर अपने-आपको विडंबित करता है ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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