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४३२ : सम्बोधि
पर बल दिया है। वे कहते हैं-'चित्त शुद्धि न कर जो केवल मुक्त होना चाहता है वह मगतृष्णा नदी में पानी की इच्छा करता है। जो साधक भेद-विज्ञान की देहलीज पर पैर रखते हैं वे सबसे पहले मन की चंचलता का अवरोध करते हैं। मन की शुद्धि से ही निः सन्देह मनुष्यों की शुद्धि होती है। उसके अभाव में सिर्फ शरीर को पीड़ित करना व्यर्थ है। मन की शुद्धि केवल ध्यान को ही शुद्ध नहीं करती, अपितु कर्म समूह को भी विच्छिन्न करती है। चित्तशुद्धि के अभाव में केवल ध्यान की चर्चा करने वाला मूढ़ है। मनः शुद्धि के द्वारा सब साध्य हैं। जिसका चित्त स्थिर हो गया, कलुषता से मुक्त हो गया और ज्ञान से सुवासित हो गया उस ध्याता के साध्य सिद्ध हो गया। उसके लिए काया को कष्ट देना व्यर्थ है।
इस समग्र चर्या का प्रतिपाद्य है-मनोजय और मनःशुद्धि। दोनों निस्संदेह कठिनतम हैं, किन्तु असाध्य नहीं हैं। साधक में साध्य-प्राप्ति की अभीप्सा हो, गहन निष्ठा हो और सतत श्रमशीलता हो तो कठिन नहीं है। मनोजय और मनःशुद्धि दोनों के लिए दो साधन-पद्धतियां नहीं, बल्कि एक ही है। वह है-- जागरूकता और विचार-दर्शन । जागरूकता से अशुद्धि का द्वार निरुद्ध होगा और विचार-दर्शन से क्रमशः निर्विचारता का पथ प्रशस्त होगा। यह पद्धति केवल कुछेक के लिए नहीं, अपितु सर्वत्र प्रयोज्य है। रोग सहस्त्री हों पर सबकी औषधि एक है। अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो रोग एक प्रमत्तता ही है। उसे दूर करने पर सव बीमारियां दूर हो जाती हैं। इसलिए विवेक, अप्रमत्तता-जागरूकता पर सबने विशेष बल दिया है। अपनी समस्त वृत्तियों के प्रति सर्वदा सचेत रहना, तटस्थ भाव से देखना, यही सहज-सरल मार्ग है जो चैतन्य के साथ संयुक्त करता है।
मनोनुशासन की व्याख्या में युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ ने कुछ प्रयोग निरालंबननिविचार ध्यान के लिए प्रस्तुत किये हैं, जो इस प्रकार हैं
निरालम्बन ध्यान की कुछ पद्धतियां हैं। उन्हें जानने पर उसका अभ्यास सहज हो जाता है। उनका पहला अंग है--प्रयत्न की शिथिलता। सालम्बन ध्यान में जैसे शरीर, वाणी और श्वास का प्रयत्न शिथिल कर दिया जाता है, उसी प्रकार निरालम्बन ध्यान में मन का प्रयत्न भी शिथिल किया जाता है। निरालम्बन ध्यान वस्तुतः अप्रयत्न की स्थिति है।
दूसरा अंग-निरम्र आकाश की ओर टकटकी लगाकर देखते जाइए। थोड़े समय में चित्त विचारशून्य हो जायेगा।
तीसरा अंग-केवल कुम्भक का अभ्यास कीजिये। मन विचार-शून्य हो जायेगा।
चौथा अंग-मानसिक विचारों को समेट कर हृदय-चक्र की ओर ले जाइए। फिर गहराई तक उतरने का अनुभव कीजिए। ऐसा करते ही चित्त
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