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________________ ४२० : सम्बोधि चाहिए । यह तो आत्मा के द्वारा आत्मा के लिए आत्मा में स्वयं ज्ञेय है जिसमें साधक श्वास-दर्शन में पूर्णतया जागृत रहता है । श्वास से सुख-दुःख, हानि-लाभ, स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य, मृत्यु आदि सभी सूचनाएं प्राप्त होती रहती हैं। श्वास की साधना में प्रस्तुत साधक श्वास के प्रति जागृत रहता है। वह कहां से आता है, कैसे आता है, देखता है। श्वास के साथ कोई श्रम नहीं करता, सिर्फ देखता है, और अपने मन को उसके आवागमन के साथ नियोजित कर देता शांति और अशान्ति के साथ उन दोनों के परिणामों को देखता है केवल तटस्थ भाव से बिना प्रतिक्रिया किये। उसके सहज जो परिणाम आते हैं, उनकी अनुभूति से वह अपरिचित नहीं रहता । श्वास दर्शन और उस पर एकाग्रता का पहला स्पष्ट प्रभाव तो यह होता है कि उसमें राग-द्वेष, काम-क्रोध, घृणा, ईर्ष्या, लोभ है। सांस की आदि से उत्पन्न उद्वेग तनावों का अभाव हो जायगा। ये सब श्वास की उत्तेजना अशान्ति में होते हैं । शान्त सांस में इनका अस्तित्व असंभव है। श्वास और वृत्तियों का घनिष्टतम सम्बन्ध है। वृत्तियां चंचलता की द्योतक हैं । जैसे कि वृत्ति उत्पन्न होगी सांस में परिवर्तन आ जायेगा । वृत्तियों का ज्वार नहीं है भीतर, तो सांस में भी वैषम्य नहीं है। श्वास को शान्त रखेंगे तो वृत्तियां शान्त रहेंगी और त्तियों को शान्त रखेंगे तो श्वास शान्त रहेगा। दोनों का अविनाभावी सम्बन्ध है। श्वास पर चित्त को एकाग्र करने का दूसरा फलितार्थ होता है-~-शरीर और स्वयं-दोनों के पृथक्त्व का बोध । इसके आगे श्वास की पृथक्ता भी प्रतीत होगी। मैं अलग हूं, संसार अलग है और शरीर अलग है। निरालम्बन ध्यान में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। भेद-विज्ञान साधना का प्रमुख ध्येय है। शरीर और चेतना के पृथक बोध के पश्चात् आत्म-ध्यान असहज नहीं होता। यदि हम थोड़ी-सी कुशलता संपादन कर लें तो सभी एकाग्रता के साधनों से यह प्रतिफलित हो सकता है। ध्याता और ध्येय यह द्वैत सबमें उपस्थित रहता है। सिर्फ उस दूरी को देखना है । ध्येय पृथक् है मैं पृथक् हूं ध्यान को शनैः शनैः बाहर से हटाकर ध्याता की तरफ ले जाने से क्रमश: वह स्पष्ट होने लगता है और बाहर के ध्येय को छोड़ने में भी कठिनाई नहीं होती। केवल बाहर को पकड़कर उसमें ही चित्त को नियोजित करने से वह थोड़ा-सा असाध्य बन जाता है। साधना सिर्फ लक्ष्य को साधने के लिए है । वह मात्र साधना है। साध्य-प्राप्ति के बाद उसे पकड़े रखना बुद्धिमत्ता नहीं होती। किन्तु बाहर की एकाग्रता का आनन्द इतना प्रिय हो जाता है तब अन्तर से योग होना सहज नहीं रहता। ध्येय की च्युति न हो, यह स्मृत रहना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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