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________________ परिशिष्ट-१ : ४०३ रस का अनुभव क्षणिक है, किन्तु उसकी स्मृतियां व्यक्ति को दीर्घकाल तक सताती रहती हैं। कण्ठ से नीचे उतरने के बाद सब कुछ भोजन मिट्टी हो जाता है, इसे सिर्फ दोहराने या कथन करने से नहीं, अपितु प्रत्यक्ष अनुभव में उतारना है। जिस दिन यह सत्यता स्पष्ट हो जाती है, उस दिन केवल जीवन निर्वाह के लिए भोजन रह जाता है। साधक ध्येय को सतत अविस्मृत रखते हुए पदार्थों के वास्तिवक स्वरूप को देखें। (५) कायक्लेश इसका सीधा सरल अर्थ है-काया-कष्ट। मन शरीर का ही सूक्ष्म अंश है। जितने कष्ट उत्पन्न होते हैं सब काया में होते हैं। उत्पत्ति कष्ट है। उसके पीछे मृत्यु संलग्न है। जो पैदा होता है, वह मरणधर्मा है। हिमालय पर शिवजी के सामने अचानक कोई धमाका हुआ, तब सामने स्थित नन्दी ने पूछा-'भगवन् !' यह किसकी ध्वनि हुई ? शंकर ने कहा-'रावण का जन्म हुआ है ।' कुछ ही क्षणों बाद फिर वैसी ही आवाज हुई और नन्दी ने फिर प्रश्न किया। शिवजी बोलेरावण की मृत्यु हो गई। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, पूछा, यह कैसे ? अभी जन्मा और अभी मृत्यु! शंकर ने कहा-जगत् का यही स्वरूप है। जगत् उत्पत्ति और विनाश से संयुक्त है। शरीर में अनेक व्याधियां उत्पन्न होती हैं। शरीर व्याधि-आधि का मन्दिर है। उसे और क्या क्लेश दिया जाए? इससे बढ़कर और कष्ट हो भी क्या सकता है ? किन्तु जो इसे नहीं जानते, देखते उन्हें दूसरी क्रियाएं कष्टप्रद प्रतीत होती हैं । साधक शरीर को कष्ट नहीं देता, किन्तु शरीर को साधना के अनुकूल बनाता है । शरीर को साधना का अभ्यास नहीं है। उसने जो कुछ देखा है, अनुभव किया है, वह अनकल का किया है। प्रतिकूल स्थिति उसे स्वयं कष्टपूर्ण लगती है। कुछ व्यक्ति विवश होकर महीनों तक एक जैसी स्थिति में पड़े रह सकते हैं। वे बहुत दुःख पाते हैं। किन्तु विवशता है। साधना की स्थिति में साधक स्व-वशता पूर्वक वैसा अभ्यास करता है, जिससे संसार की चंचलता समाप्त हो और आत्म-दिशा में आगे बढ़ा जा सके। काय की अस्थिरता मन को अस्थिर बना देती है। मन के चंचल होते ही धारणा, ध्यान विक्षिप्त हो जाता है। इस दृष्टि से आसन-विजय या काय-क्लेश का स्थान महत्त्वपूर्ण है। गौतम ने भगवान महावीर से पूछाभंते! काय-क्लेश का प्रतिपादन क्यों किया? भगवान महावीर ने उत्तर दिया'गौतम! सुख-सुविधा की चाह आसक्ति लाती है। आसक्ति से चैतन्य मूच्छित हो जाता है। मूर्छा धृष्टता लाती है। धृष्ट व्यक्ति विजय का पथ नहीं पा सकता। इसलिए मैंने यथाशक्ति काय-क्लेश का विधान किया है। गौतम ने पूछा---'भगवन् ! काय-क्लेश क्या है ?' भगवान् ने कहा-'गौतम ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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