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अध्याय १६ : ३८३
४. स्नान आदि की इच्छा न करना।
इन कारणों से साधु का चित्त स्थिर बनता है और वह मुक्ति को प्राप्त होता है, अतः निर्ग्रन्थ के लिए ये चार सुख-शय्याएं हैं।
शय्या का अर्थ है-आश्रय-स्थान । सुख और दुःख के चार-चार आश्रयस्थान हैं। मुनि का मन संयम से विचलित होता है । उसके मुख्य कारण चार हैं : (१) संयम के प्रति अश्रद्धा, (२) श्रम से जी चुराना, (३) विषयों में आसक्ति, (४) श्रृंगार की भावना। ये चार दुःख के आश्रय-स्थान हैं।
मुनि के संयम में स्थिर रहने के चार कारण हैं : (१) संयम के प्रति श्रद्धा, (२) श्रमशीलता, (३) विषय-विरक्ति, (४) शृंगार-वर्जन। ये चार सुख के आश्रय-स्थान हैं।
दुष्टा व्युत्पादिता मूढा, दुःसंज्ञाप्या भवन्त्यमी। सुसंज्ञाप्या भवन्त्यन्ये, विपरीता इतो जनाः॥३६॥
३६. तीन प्रकार के व्यक्ति दुःसंज्ञाप्य (जिन्हें समझाया न जा सके वैसे) होते हैं
१. दुष्ट, २. व्युद्ग्राहित–दुराग्रही, ३. मूढ़ ।
इनसे भिन्न प्रकार के व्यक्ति सुसंज्ञाप्य (जिन्हें समझाया जा सके वैसे) होते हैं।
द्वेष करने वाले, दुराग्रही और मोहग्रस्त-ये तीन प्रकार के व्यक्ति सत्ज्ञान (शिक्षा) के लिए पात्र नहीं हैं। शिक्षा या सद्बुद्धि का अंकुर वहीं पल्लवित हो सकता है जहां अनाग्रह, नम्रता और सरलता है। द्विष्ट-चित्त वाला व्यक्ति अपने मन में ईर्ष्या, क्रोध, अभिमान, आग्रह आदि का पोषण करता है। वह अज्ञान और मोह से घिरा रहता है । मूढ़ मनुष्य को हिताहित का विवेक नहीं होता। भर्तहरि ने मूढ़ और दुराग्रही के लिए यहां तक कहा है कि उन्हें ब्रह्मा भी रंजित नहीं कर सकते--"अज्ञ व्यक्ति को समझाना सरल है। विद्वान् को समझाना सरलतम है किन्तु जो दोनों के बीच के अर्धपंडित हैं उन्हें ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते।"
भगवान महावीर ने शिक्षा के योग्य व्यक्ति के लिए कुछ विशेष बातों की ओर संकेत किया है, वे हैं-"नम्रता, सहिष्णुता, दमितेन्द्रियता, अनाग्रह-भाव, सत्य रतता, क्रोधोपशान्ति, क्षमा, सद्भाव और वाक-संयम ।
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