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३६२ : सम्बोधि
आनन्दघन जी ने कहा -- चर्म चक्षुओं से देखते हुए व्यक्ति मार्ग को नहीं देख सकते। मार्ग को देखने के लिए दिव्य-नेत्र, अन्तः चक्षु चाहिए। धर्म की अनुभूति भक्षु से होती है, बाहर की आंखें धर्म को देख नहीं सकतीं । धर्म शब्द अनेकार्थक है । वस्तु के स्वभाव अर्थ में प्रयुक्त होते हुए भी वह अपने में अन्य अर्थों को भी समाहित रखता है । भ्रांति एकार्थता या स्पष्टता के कारण नहीं होती । वह होती है अस्पष्टता तथा अनेकार्थता के कारण । इसलिए सत्य को देखने के लिए. साधारण आंखें पर्याप्त नहीं होती । दश विध धर्म में यह अनेकता स्पष्ट परिलक्षित होती है । स्वभाव, व्यवस्था, रीति-रिवाज या परम्परा आदि धर्म के अनेक अर्थ. हैं । साधक को इन सबका विवेक कर स्वधर्म ( आत्म-स्वभाव ) में प्रवृत्त होना चाहिए। आत्म-धर्म सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चरित्र रूप है । प्रस्तुत श्लोक में आठवां- नौवां भेद आत्मधर्म है, शेष व्यवहार धर्म है ।
जो प्रक्रिया या नियम आत्म-बोध को उजागर करे, अज्ञान का विध्वंश करे, वही धर्म है । धर्म से आत्मा आवृत नहीं होती । जो धर्मं आत्मा को अनावृत न करे यह वस्तुतः धर्म नहीं होता । धर्म स्वयं को जानने की प्रक्रिया है । 'कन्फ्यूशियस ' ने कहा - 'अज्ञानी दूसरों को जानने की कोशिश करता है और ज्ञानी स्वयं की खोज में लगा रहता है ।" महावीर का समग्र बल आत्मा को जागृत करने में है । इस लिए यह स्पष्ट विवेक दिया है और कहा है- आत्म-स्वभाव के अतिरिक्त कोई धर्म नहीं है ।
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