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३६० : सम्बोधि
५४-५५. दान दस प्रकार का होता है : १. अनुकम्पा-दान-किसी व्यक्ति की दीनावस्था से द्रवित होकर उसके भरण-पोषण के लिए दिया जाने वाला
दान। २. संग्रह-दान--कष्ट में सहायता देने के लिए दान देना । ३. भय-दान-भय से दान देना। ४. कारुण्य-दान-शोक के प्रसंग में दान देना। ५. लज्जा-दान-लज्जा से दान देना। ६. गर्व-दान-यश-गान सुनकर एवं बराबरी की भावना
से दान देना। ७. अधर्म-दान-हिंसा आदि पांच आस्रव-द्वार सेवन के लिए
दान देना। ८. धर्म-दान-प्राणी-मात्र को अभय देना, सम्यक्त्व और ___चारित्र की प्राप्ति करवाना। 8. करिष्यति-दान-लाभ के बदले की भावना से दान
देना। १०. कृत-दान—किये हुए उपकार को याद कर दान देना। -दान शब्द का अर्थ है-देना, छोड़ना, विसर्जन करना । दान को चार प्रकार के धर्मों में एक धर्म कहा है। मनुष्य की प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे एक भाव रहता है। प्रवृत्ति मुख्य नहीं होती, भाव मुख्य होता है। समान्यतया मनुष्य प्रत्येक क्रिया के पूर्व-यह क्यों करनी चाहिए? क्या फल है ? इसे जान लेना चाहेगा। फलाकांक्षा का त्याग साधारण बात नहीं। गीता का सार है-त्याग, फलाकांक्षा छोड़ देना। 'राबिया' एक सूफी साधिका थी । वह एक हाथ में मशाल और एक हाथ मैं पानी की बाल्टी लेकर भागी जा रही थी। लोगों ने पूछा-आज क्या मामला है ? 'राबिया' ने कहा-स्वर्ग को जलाने और नरक को डुबोने जा रही हूं। लोगों ने पूछा-किसलिए? कहा-तुम्हारे धर्म के मध्य में ये दो महान् व्यवधान हैं। नरक का भय और स्वर्ग का प्रलोभन, व्यक्ति इन दोनों से मुक्त हो कर ही शुद्ध, सत्य धर्म का स्पर्श कर सकता है। दान के पीछे जो मानसिक भावदशा होती है, उसी को आधार मानकर ये भेद किए गए हैं। कामना से मुक्त होने के बाद जो प्रवृत्ति होती हैं, वह वास्तविक प्रवृत्ति होती है। उसमें कोई आकांक्षाप्रत्याशा नहीं रहती। दान के साथ व्यक्ति को सीखना है-फलाकांक्षा और
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