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________________ ३५४ : सम्बोधि चाहता हूं । भगवान ने सुना और मौन रहे। जमालि ने दूसरी बार, तीसरी बार अपनी भावना प्रकट की, किंतु भगवान मौन रहे। वह वन्दना-नमस्कार कर पांच सौ निग्रन्थों को ले अलग यात्रा पर निकल पड़ा। वह श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में ठहरा हुआ था। संयम और तप की साधना चल रही थी। कठिन तप के कारण उसका शरीर रोग से घिर गया । शरीर जलने लगा। वेदना से पीड़ित जमालि ने साधुओं से बिछौना करने के लिए कहा । साधु बिछौना करने लगे। कष्ट से एक-एक क्षण भारी हो रहा था। पूछा--बिछौना बिछा दिया या बिछा रहे हो ? श्रमणों ने कहा –किया नहीं, किया जा रहा है। दूसरी बार कहने पर भी यही उत्तर मिला। जमालि इस उत्तर से चौंक उठा। आगमिक आस्था हिल उठी। वह सोचने लगा-भगवान का सिद्धान्त इसके विपरीत है। वे कहते हैं-क्रियमाणकृत और संस्तीर्यमाण संसृत-करना शुरू हुआ, वह कर लिया गया, बिछाना शुरू किया वह बिछा लिया गया-यह सिद्धान्त गलत है। कार्य पूर्ण होने पर ही उसे पूर्ण कहना यथार्थ हैं । उसने साधुओं को बुलाया और मानसिक चिन्तन कह सुनाया। कुछ एक श्रमणों को यह विचार ठीक लगा और कुछ एक को नहीं। जमालि पर जिनकी श्रद्धा थी वे जमालि के साथ रहे। मिथ्या आग्रह से वह आग्रही हो गया। दूसरों को भी उस मार्ग पर लाने का वह प्रयत्न करता रहा। अनेक लोग उसके वाग्जाल से प्रभावित होकर सत्यमार्ग से च्युत हो गए। मिथ्यादर्शनमापन्नाः, सनिदानाश्च हिंसकाः। नियन्ते प्राणिनस्तेषां, बोधिर्भवति दुर्लभा ॥४४॥ ४४. जो मिथ्यादर्शन से युक्त हैं, जो भौतिक सुख की प्राप्ति का संकल्प करते हैं और जो हिंसक हैं, उन्हें मृत्यु के बाद भी बोधि की प्राप्ति दुर्लभ होती है। सम्यग्दर्शनमापन्नाः, अनिदाना अहिंसकाः। म्रियन्ते प्राणिनस्तेषां, सुलभा बोधिरिष्यते ॥४५॥ ४५. जो सम्यग्दर्शन से युक्त हैं, जो भौतिक सुख का संकल्प नहीं करते और जो अहिंसक हैं, उन्हें मृत्यु के उपरान्त भी बोधि सुलभ होती है। जीवन का परम ध्येय बोधि है। बोधि के अनुभव के अभाव में संसार-प्रवाह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003124
Book TitleSambodhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1981
Total Pages510
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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